महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 249 श्लोक 1-24

एकोनपंचाशदधिकद्विशततम (249) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशदधिकद्विशततम श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद


ज्ञान के साधन तथा ज्ञानी के लक्षण और महिमा  

व्‍यास जी कहते हैं–पुत्र! प्रकृति ही गुणों की सृष्टि करती है। क्षेत्रज्ञ –आत्‍मा तो उदासीन की भाँति उन सम्‍पूर्ण विकारशील गुणों को देखा करता है। वह स्‍वाधीन एवं उनका अधिष्‍ठाता है। जैसे मकड़ी अपने शरीर से तन्‍तुओं की सृष्टि करती है, उसी प्रकार प्रकृति भी समस्‍त त्रिगुणात्‍मक पदार्थों को उत्‍पन्‍न करती है। प्रकृति जो इन सब विषयों की सृष्टि करती हैं, वह सब उसके स्‍वभाव से ही होता है। किन्‍ही का मत है कि तत्‍वज्ञान से जब गुणों का नाश कर दिया जाता है, तब भी वे सर्वथा नष्‍ट नहीं होते; किंतु तत्‍वज्ञ के लिये उनकी उपलब्धि नहीं होती अर्थात् उसका उनसे सम्‍बन्‍ध नहीं रहता। दूसरे लोग मानते हैं कि उनकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है अर्थात् उनका अस्तित्‍व नहीं रहता। इन दोनों मतों पर अपनी बुद्धि के अनुसार विचार करके सिद्धान्‍त का निश्‍चय करे। इस प्रकार निश्‍चय करने से (बार-बार) गर्भ में शयन करने वाला जीव महान् हो जाता है। आत्‍मा आदि और अन्‍त से रहित है। उसे जानकर मनुष्‍य सदा हर्ष, क्रोध और ईर्ष्‍या-द्वेष से रहित हो विचरता रहे।

साधक को चाहिये कि बुद्धि के चिन्‍ता आदि धर्मों से सुदृढ़ हुई हृदय की अविद्यामयी अनित्‍य ग्रन्थि को उपर्युक्‍त प्रकार से काटकर शोक और संदेह से रहित हो सुखपूर्वक परमात्‍मस्‍वरूप में स्थित हो जाय। जैसे तैरने की कला न जानने वाले मनुष्‍य यदि किनारे की भूमि से जल पूर्ण नदी में गिर पड़ते हैं तो गोते खाते हुए महान् क्‍लेश सहन करते हैं; उसी प्रार अज्ञानी मनुष्‍य इस संसार-सागर में डूबकर कष्‍ट भोगते रहते हैं- ऐसा समझो। पंरतु जो तैरना जानता है, वह कष्‍ट नहीं उठाता। वह तो जल में भी स्‍थल की ही भाँति चलता है, उसी तरह ज्ञानस्‍वरूप विशुद्ध आत्‍मा को प्राप्‍त हुआ तत्‍ववेत्ता संसार-सागर से पार हो जाता है। जो मनुष्‍य इस प्रकार सम्‍पूर्ण प्राणियों के आवागमन को जानता तथा उनकी विषम अवस्‍था पर विचार करता है, उसे परम उत्तम शान्ति प्राप्‍त होती है। विशेष रूप से ब्राह्मण में और समानभाव से मनुष्‍य मात्र में इस ज्ञान को प्राप्‍त करने की जन्‍मसिद्ध शक्ति है। मन और इन्द्रियों का संयम तथा आत्‍मज्ञान मोक्ष प्राप्ति के लिये पर्याप्‍त साधन है। शम और आत्‍मतत्‍व को जानकर पुरुष अत्‍यन्‍त शुद्ध-बुद्ध हो जाता है। ज्ञानी का इसके सिवा और क्‍या लक्षण हो सकता है।

बुद्धिमान् मनुष्‍य इस आत्‍मतत्‍व को जानकर कृतार्थ और मुक्‍त हो जाते हैं। परलोक मे जो अज्ञानी मनुष्‍यों को महान् भय प्राप्‍त होता है, यह महान् भय ज्ञानी पुरुषों को नहीं होता। ज्ञानी को जो सनातन गति प्राप्‍त होती है, उससे बढ़कर उत्तम गति और किसी को भी प्राप्‍त नहीं होती। कुछ लोग मनुष्‍यों को दुखी और रोगी देखकर उनमें दोष-दृष्टि करते हैं और दूसरे लोग उनकी वह अवस्‍था देखकर शोक करते हैं। पंरतु जो कार्य और कारण दोनों को तत्‍व से जानते हैं, वे शोक नहीं करते। तुम उन्‍हीं लोगों को वहाँ कुशल समझो। कर्मपरायण मनुष्‍य निष्‍काम भाव से जिस कर्मका अनुष्‍ठान करते हैं, वह पहले के किये हुए सकाम या अशुभ कर्मों को भी नष्‍ट कर देता है; इस प्रकार कर्म करने वाले साधक के कर्म इस लोक में या परलोक में कही भी उसका भला बुरा या दोनों कुछ भी नहीं कर सकते।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुकदेव का अनुप्रश्‍नविषयक दौ सो उनचासवॉ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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