द्वयाधिकद्विशततम (202) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्वयाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद
आत्मतत्व का और बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थों का विवेचन तथा उसके साक्षात्कार का उपाय मनु कहते हैं- बृहस्पते! अविनाशी परमात्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से यह पृथ्वी उत्पन्न हुई है। इस पृथ्वी में ही सम्पूर्ण पार्थिव जगत् की उत्पत्ति होती है। इन पूर्वोक्त शरीरों के साथ (पार्थिव शरीर के बाद) प्राणियों का जल में लय होता है; फिर वे जल से अग्नि में, अग्नि से वायु में और वायु से आकाश में लीन होते हैं। आकाश से सृष्टिकाल में फिर वे पूर्वोक्त क्रम से उत्पन्न होते है; परंतु जो जानी हैं, वे मोक्षस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाते है। उनका पुन: इस संसार में जन्म नहीं होता। वह परमात्मतत्व न गर्म है न शीतल, न कोमल है न तीक्ष्ण, न खटटा है न कसैला, न मीठा है न तीता। शब्द, गन्ध और रूप से भी वह रहित है। उसका स्वरूप सबसे उत्कृष्ट एवं विलक्षण है। त्वचा स्पर्श का, जिह्वा रस का, घ्राणेन्द्रिय गन्ध का, कान शब्द का और नेत्र रूप का ही अनुभव करते हैं। ये इन्द्रियाँ परमात्मा को प्रत्यक्ष नहीं कर सकतीं। अध्यात्म ज्ञान से हीन मनुष्य परमात्मतत्व का अनुभव नहीं कर सकता। अत: जो जिह्वा को रस से, नासिका को गन्ध से, कानों को शब्द से, त्वचा को स्पर्श से और नेत्रों को रूप से हटाकर अन्तर्मुखी बना लेता है, वही अपने मूलस्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है। महर्षिगण कहते हैं जो कर्ता जिस कारण से, जिस फल के उदेश्य से, जिस देश या काल में, जिस प्रिय या अप्रिय के निमित्त, जिस राग या द्वेष से प्रभावित हो प्रवृत्ति मार्ग का आश्रय ले जिस कर्म को करता हैं, इन सबके समुदाय का जो कारण हैं, वही सबका स्वरूपभूत परब्रह्म परमात्मा है। श्रुति के कथनानुसार जो व्यापक, व्याप्य और उनका साधन है, जो संपूर्ण लोक में सदा ही स्थित रहने वाला कूटस्थ, सबका कारण और स्वयं ही सब कुछ करने वाला है, वही परम कारण है। उसके सिवा जो कुछ है, सब कार्यमात्र है। जिस प्रकार अग्नि से प्रज्वलित दीपक स्वयं प्रकाशित होता हुआ पास में स्थित अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित कर देता है, उसी प्रकार इस शरीररूप वृक्ष में स्थित पाँच इन्द्रियाँ चैतन्यरूपी ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होकर विषयों को प्रकाशित करती हैं (उनका प्रकाश चिन्मय प्रकाश के अधीन होने के कारण वे पराधीन है। स्वत: प्रकाश करने में समर्थ नहीं हैं) जैसे किसी राजा के द्वारा भिन्न-भिन्न कार्यो में नियुक्त किये गये बहुत से मन्त्री अपने पृथक्-पृथक् कार्यो की जानकारी राजा को कराते हैं। उसी प्रकार शरीरों में स्थित पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने एकदेशीय विषय का परिचय राजस्थानीय बुद्धि को देती है। जैंसे मन्त्रियों से राजा श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार उन पाँचों इन्द्रियों से उनका प्रवर्तक वह ज्ञान श्रेष्ठ है। जैसे अग्नि की शिखाएँ, वायु का वेग, सूर्य की किरणें और नदियों का बहता हुआ जल ये सदा आते-जाते रहते हैं, इसी प्रकार देहधारियों के शरीर भी आवागमन के प्रवाह मे पड़े हुए हैं। जैंसे कोई मनुष्य कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी को चीरे तो उसमें उसे न तो आग दिखायी देगी और न धुआँ ही प्रकट होगा, उसी प्रकार इस शरीर का पेट फाड़ने या हाथ-पैर काटने से कोई उसे नहीं देख पाता, जो अन्तर्यामी आत्मा शरीर से भिन्न है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सन्दर्भ त्रुटि: अमान्य
<ref>
टैग;A
नामक संदर्भ की जानकारी नहीं है
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज