महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-18

अष्टादश (18) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टादश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन का राजा जनक और उनकी रानी का दृष्टान्त देते हुए युधिष्ठिर को संन्यास ग्रहण करने से रोकना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब राजा युधिष्ठिर ऐसा कहकर चुप हो गये, तब राजा के बाग्बाणों से पीड़ित हो शोक और दुःख से संतप्त हुए अर्जुन फिर उनसे बोले।

अर्जुन ने कहा- भारत! विज्ञ पुरुष विदेहराज जनक और उनकी रानी का संवादरूप यह प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। एक समय राजा जनक ने भी राज्य छोड़कर भिक्षा से जीवन-निर्वाह कर लेने का निश्चय कर लिया था। उस समय विदेहराज की महारानी ने दुखी होकर जो कुछ कहा था, वही आपको सुना रहा हूँ। कहते हैं एक दिन राजा जनक पर मूढ़ता छा गयी और वे धन, संतान, स्त्री, नाना प्रकार के रत्न, सनातन मार्ग और अग्निहोत्र का भी त्याग करके अंकचन हो गये। उन्होंने भिक्षु-वृत्ति अपना ली और वे मुट्ठीभर भुना हुआ जौ खाकर रहने लगे। उन्होंने इस प्रकार की चेष्टाएं छोड़ दीं। उनके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या का भाव नहीं रह गया था। इस प्रकार निर्भय स्थिति में पहुचे हुए अपने स्वामी को उनकी भार्या ने देखा और उनके पास आकर कुपित हुई उस मनस्विनी एवं प्रिय रानी ने एकान्त में यह युक्तियुक्त बात कही- 'राजन्! आपने धन-धान्य से सम्पन्न अपना राज्य छोड़कर यह खपड़ा लेकर भीख माँगने का धंधा कैसे अपना लिया? यह मुट्ठीभर जौ आपको शोभा नहीं दे रहा है। नरेश्वर! आपकी प्रतिज्ञा तो कुछ और थी और चेष्टा कुछ और ही दिखायी देती है।

भूपाल! आपने विशाल राज्य छोड़कर थोड़ी-सी वस्तु में संतोष कर लिया। राजन्! इस मुट्ठीभर जौ से देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा अतिथियों का आप भरण-पोषण नहीं कर सकते, अतः आपका यह परिश्रम व्यर्थ है। पृथ्वीनाथ! आप सम्पूर्ण देवताओं, अतिथियों और पितरों से परित्यक्त होकर अकर्मण्य हो घर छोड़ रहे हैं। तीनों वेदों के ज्ञान में बढे़-चढे़ सहस्रों ब्रह्मणों तथा इस सम्पूर्ण जगत् का भरण-पोषण करने वाले होकर भी आज आप उन्हीं के द्वारा अपना भरण-पोषण चाहते हैं। इस जगमगाती हुई राजलक्ष्मी को छोड़कर इस समय आप दर-दर भटकने वाले कुत्ते के समान दिखायी देते हैं। आज आपके जीते-जी आपकी माता पुत्रहीन और यह अभागिनी कौशल्या पतिहीन हो गयी। ये धर्म की इच्छा रखने वाले क्षत्रिय जो सदा आपकी सेवा में बैठे रहते हैं, आपसे बड़ी-बड़ी आशाएं रखते हैं, इन बेचारों को सेवा का फल चाहिये।

राजन्! मोक्ष की प्राप्ति संशयास्पद है और प्राणी प्रारब्ध के अधीन हैं, ऐसी दशाओं में उन अथार्थी सेवकों को यदि आप विफल-मनोरथ करते हैं तो पता नहीं, किस लोक में जायेंगे? आप अपनी धर्मपत्नी का परित्याग करके जो अकेला जीवन बिताना चाहते हैं, इससे आप पापकर्मी बन गये हैं; अतः आपके लिये न यह लोक सुखद होगा, न परलोक। बताइये तो सही, इन सुन्दर-सुन्दर मालाओं, सुगन्धित पदार्थों, आभूषणों और भाँति-भाति के वस्त्रों को छोड़कर किसलिये कर्महीन होकर घर का परित्याग कर रहे हैं? आप सम्पूर्ण प्राणियों के लिये पवित्र एवं विशाल प्याऊ के समान थे- सभी आपके पास अपनी प्यास बुझाने आते थे। आप फलों से भरे हुए वृक्ष के समान थे- कितने ही प्राणियों की भूख मिटाते थे, परंतु वे ही आप अब (भूख प्यास मिटाने के लिये) दूसरों का मुह जोह रहे हैं। यदि हाथी भी सारी चेष्टा छोड़कर एक जगह पड़ जाय तो मांसभक्षी जीव-जन्तु और कीडे़ धीरे-धीरे उसे खा जाते हैं, फिर सब पुरुषार्थों से शून्य आप जैसे मुनष्यों की तो बात ही क्या है?'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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