एकसप्तत्यधिकशतत (171) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुवर्णराशि लेकर लौटना और अपने मित्र बक के वध का घृणित विचार मन में लाना भीष्म जी कहते हैं- राजन! तदनन्तर राजा को उसके आगमन की सूचना दी गयी और वह उनके उत्तम भवन में प्रविष्ट हुआ। वहाँ राक्षसराज ने उसका विधिवत पूजन किया। तत्पश्चात वह एक उत्तम आसन पर विराजमान हुआ। विरूपाक्ष ने गौतम से उसके गौत्र, शाखा और ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक किये गये स्वाध्याय के विषय में प्रश्न किया; परंतु उसने गोत्र (जाति) के सिवा और कुछ नहीं बताया। तब ब्राह्मणोंचित तेज से हीन, स्वाध्याय से उपरत, केवल गोत्र अथवा जाति का नाम जानने वाले उस ब्राह्मण से राजा ने उसका निवास स्थान पूछा। राक्षसराज बेाले- भद्र! तुम्हारा निवास कहाँ है? तुम्हारी पत्नी किस गोत्र की कन्या है? यह सब ठीक-ठीक बताओ। भय न करो। मुझ पर विश्वास करो और सुख से रहो। गौतम ने कहा- राक्षसराज! मेरा जन्म तो हुआ है मध्यदेश में, किंतु मैं एक भील के घर में रहता हूँ। मेरी स्त्री शूद्र जाति की है और वह मुझसे पहले दूसरे की पत्नी रह चुकी है। यह बात मैं आपसे सत्य ही कहता हूँ। भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! यह सुनकर राक्षसराज मन-ही-मन विचार करने लगे कि अब किस तरह काम करना चाहिये? कैसे मुझे पुण्य प्राप्त हो सकता है? इस प्रकार उन्होंने बारंबार बुद्धि लगाकर सोचा और विचारा। वे मन-ही-मन कहने लगे, यह केवल जन्म से ही ब्राह्मण है; परंतु महात्मा राजधर्मा का सुहृद् है। उन कश्यपकुमार ने ही इसे यहाँ मेरे पास भेजा है; अत: उनका प्रिय कार्य अवश्य करूंगा। वह सदा मुझ पर भरोसा रखता है और मेरा भाई, बान्धव तथा हार्दिक मित्र भी है। ‘आज कार्तिक की पूर्णिमा है। आज के दिन सहस्रों श्रेष्ठ ब्राह्मण मेरे यहाँ भोजन करेंगे। उन्हीं में यह भी भोजन कर लेगा, उन्हीं के साथ इसे भी धन देना चाहिये। आज पुण्य दिवस है, यह ब्राह्मण अतिथिरूप से यहाँ आया है और मैंने धन दान करने का संकल्प कर ही रखा है। अब इसके बाद क्या विचार करना है?’ तदनन्तर भोजन के समय हजारों विद्वान् ब्राह्मण स्नान करके रेशमी वस्त्र और अलंकार धारण किये वहाँ आ पहुँचे। प्रजानाथ! विरूपाक्ष ने वहाँ पधारे हुए उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों का शास्त्रीय विधि के अनुसार यथायोग्य स्वागत-सत्कार किया भरतश्रेष्ठ! राक्षसराज की आज्ञा से सेवकों ने जमीन पर उनके लिये कुश के सुदंर आसन बिछा दिये। राजा के द्वारा सम्मानित वे श्रेष्ठ ब्राह्मण जब उन आसनों पर विराजमान हो गये तब विरूपाक्ष ने तिल, कुश और जल लेकर उनका विधिवत् पूजन किया। उनमें विश्वेदेवों, पितरों तथा अग्निदेव की भावना करके उन सबको चंदन लगाया, फूलों की मालाएँ पहनायीं और सुदंर रीति से उनकी पूजा की। महाराज! उन आसनों पर बैठकर वे ब्राह्मण चन्द्रमा की भाँति शोभा पाने लगे। तत्पश्चात उसने हीरों से जड़ी हुई सोने की स्वच्छ सुंदर थालियों में घी से बने हुए मीठे पकवान परोसकर उन ब्राह्मणों के आगे रख दिये। उसके यहाँ आषाढ़ और माघ की पूर्णिमा को सदा बहुत-से ब्राह्मण सत्कारपूर्वक अपनी इच्छा के अनुसार उत्तम भोजन पाते थे। विशेषत: कार्तिक की पूर्णिमा को, जबकि शरद ऋतु की समाप्ति होती है, वह ब्राह्मणों को रत्नों का दान करता था; ऐसा सुनने में आया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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