महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 134 श्लोक 1-17

चतुस्त्रिंशदधिकशतम (134) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: चतुस्त्रिंशदधिकशतम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


बल की महता और पाप से छूटने का प्रायश्चित


भीष्‍मजी कहते हैं- राजन! प्राचीनकाल की बातों को जानने वाले विद्वान् इस विषय में जो धर्म का प्रवचन करते हैं, वह इस प्रकार है-विज्ञ क्षत्रिय के लिये धर्म और अर्थ-ये दो ही प्रत्‍यक्ष हैं। धर्म और अधर्म की समस्‍या देखकर किसी के कर्त्तव्‍य में व्‍यवधान नहीं डालना चाहिये; क्‍योकि धर्म का फल प्रत्‍यक्ष नहीं है। जैसे भेड़िये का पदचिन्‍ह देखकर किसी को यह निश्‍चय नहीं होता कि यह व्‍याघ्र का पदचिन्‍ह है या कुते का? उसी प्रकार धर्म और अधर्म के विषय में निर्णय करना कठिन है। धर्म और अधर्म का फल किसी ने कभी यहाँ प्रत्‍यक्ष नहीं देखा हैं। अत: राजा बल प्राप्ति के लिये प्रयत्‍न करे; क्‍योंकि यह सब जगत बलवान के वश में होता है। बलवान पुरुष इस जगत में सम्‍पति, सेना और मन्‍त्री सब कुछ पा लेता है। जो दरिद्र हैं, वह पतित समझा जाता है और किसी के पास जो बहुत थोड़ा धन है, वह उच्छिष्‍ट या जूठन समझा जाता है। बलवान पुरुष में बहुत-सी बुराई होती हैं तो भी भय के मारे उसके विषय मे कोई मुंह से कुछ बात नहीं निकलता है। यदि बल और धर्म दोनों सत्‍य के उपर प्रतिष्ठित हों तो वे मनुष्‍य की महान् भय से रक्षा करते हैं। मैं धर्म से भी बल को भी अधिक श्रेष्‍ठ मानता हूं; क्‍योंकि बल से धर्म की प्रवृति होती हैं।

जैसे चलने-फिरने वाले सभी प्राणी पृथ्‍वी पर ही स्थित हैं, उसी प्रकार धर्म बल पर ही प्रतिष्ठित है। जैसे धूआं वायु के अधीन होकर चलता हैं, उसी प्रकार धर्म भी बल का अनुसरण करता है; अत: जैसे लता किसी वृक्ष के सहारे फैलती हैं, उसी प्रकार निर्बल धर्म बल के ही आधार पर सदा स्थिर रहता है। जैसे भोग-सामग्री से सम्‍पन्‍न पुरुषों के अधीन सुख-भोग होता है, उसी प्रकार धर्म बलवानो के वश में रहता है। बलवानो के लिये कुछ भी असाध्‍य नहीं है। बलवानों की सारी वस्‍तु ही शुद्ध एवं निर्दोष होती है।

जिसका बल नष्‍ट हो गया हैं, जो दुराचारी हैं, उसको भय उपस्थित होने पर कोई रक्षक नहीं मिलता हैं। दुर्बल से सब लोग उसी प्रकार उद्विग्‍न हो उठते हैं, जैसे भेड़िये से। दुर्बल अपनी सम्‍पति से वंचित हो जाता है, सबके अपमान और उपेक्षा का पात्र बनता है तथा दु:खमय जीवन व्‍यतीत करता है। जो जीवन-निन्दित हो जाता है, वह मृत्‍यु के ही तुल्‍य है। दुर्बल मनुष्‍य के विषय में लोग इस प्रकार कहने लगते है-‘अरे! यह तो अपने पापाचार के कारण बन्‍धु-बान्‍धवों द्वारा त्‍याग दिया जाता है।’ उनके उस वाग्‍बाण से घायल होकर वह अत्‍यन्‍त संतप्‍त हो उठता है। यहाँ अधर्मपूर्वक धन का उपार्जन करने पर जो पाप होता है, उससे छूटने के लिए आचार्यों ने यह बताया है-उक्‍त पाप से लिप्‍त हुआ राजा तीनों वेदों का स्‍वाध्‍याय करे, ब्राह्मणों की सेवा में उपस्थित रहें, मधुर वाणी तथा सत्‍कर्मों द्वारा उन्‍हें प्रसन्‍न करें, अपने मन को उदार बनावे और उच्‍चकुल में विवाह करे। मैं अमुक नाम वाला आपका सेवक हूं, इस प्रकार अपना परिचय दे, दूसरों के गुणों का बखान करें, प्रतिदिन स्‍नान करके इष्‍ट-मन्‍त्र का जप करे, अच्‍छे स्‍वभाव का बने, अधिक न बोले, लोग उसे बहुत पापाचारी बताकर उसकी निन्‍दा करें तो भी उसकी परवाह न करे और अत्‍यन्‍त दुष्‍कर तथा बहुत से पुण्‍यकर्मों का अनुष्‍ठान करके ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के समाज में प्रवेश करे। ऐसे आचरण वाला पुरुष पापहीन हो शीघ्र ही बहुसंख्‍यक मनुष्‍यों के आदर का पात्र हो जाता है, नाना प्रकार के सुखों का उपभोग करता है और अपने किये हुए विशेष सत्‍कर्म के प्रभाव से अपनी रक्षा कर लेता है। लोक में सर्वत्र उसका आदर होने लगता है तथा वह इहलोक और परलोक में भी महान फल का भागी होता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अंतर्गत आपद्धर्मपर्व में एक सौ चौंतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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