द्वाविंशशत्यधिकशततम(122) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्वाविंशशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! इस दण्ड की उत्पत्ति के विषय में जानकार लोग एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। उसे भी तुम सुन लो। अंगदेश में वसुहोस नाम से प्रसिद्ध एक तेजस्वी राजा राज्य करते थे। ‘एक समय की बात है, वे महातपस्वी धर्मज्ञ नरेश अपनी पत्नी के साथ देवताओं, ऋषिओं, तथा पितरों से पूजित नामक तीर्थस्थल में आये। राजेन्द्र! वह स्थान सुवर्णमय पर्वत सुमेरु के समीपवर्ती हिमालय के शिखर पर हैं, जहाँ मुंजावट में परशुरामजी ने अपनी जटाएं बांधने का आदेश दिया था। तभी से कठोर व्रत का पालन करने वाले ऋषियों ने उस रुद्रसेवित प्रदेश को मुंजपृष्ठ नाम दे दिया। वे वहाँ बहुतेरे वेदाक्त गुणों से सम्पन्न हो तपस्या करने लगे। उस तप के प्रभाव से वे देवर्षियों के तुल्य हो गये। ब्राह्मणों में उनका बड़ा सम्मान होने लगा। एक दिन इन्द्र के सम्मानित सखा उदारवेता शत्रुसुदन राजा मान्धाता उनके दर्शन के लिये आये।। राजा मान्धाता उत्तम तपस्वी अंगनरेश वसुहोम के पास पहुँचकर दर्शन करके उनके सामने विनीतभाव से खड़े हो गये। वसुहोम ने भी राजा को पाद्य और अर्ध्य निवदेन किया तथा सातों अंगों से युक्त उनके राज्य का कुशल-समाचार पूछा। पूर्वकाल में साधु पुरुषों ने जिस पथ का अनुसरण किया था, उसी पर यथावत रुप से निरन्तर चलने वाले मान्धाता से वसुहोम ने पूछा-राजन! मैं आपकी क्या सेवा करुं। कुरुनन्दन! तब परम प्रसन्न हुए मान्धाता ने वहाँ बैठे हुए महाज्ञानी नृपश्रेष्ठ वसुहोम से पूछा मान्धाता बोले-राजन! नरश्रेष्ठ! आपने बृहस्पति के सम्पूर्ण मत का अध्ययन किया है। साथ ही शुक्राचार्य के नीतिशास्त्र का भी आपको पूर्ण ज्ञान है। अत: मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि दण्ड की उत्पति कैसे हुई? इसके पहले कौन-सी वस्तु जागरुक थी? तथा इस दण्ड को सबसे उत्कृष्ट क्यों कहा जाता है?। इस समय यह दण्ड क्षत्रियों के हाथ में कैसे आया है? महामते! यह सब मुझे बताइये। मैं आपको गुरु दक्षिणा प्रदान करुंगा। वसुहोम बोले-राजन्! दण्ड सम्पूर्ण जगत् को नियम के अंदर रखने वाला है। यह धर्म का सनातन स्वरुप है। इसका उदेश्य है प्रजा को उदण्डता से बचाना है। इसकी उत्पति जिस तरह से हु्ई है, सो बता रहा हूं; सुनो।। हमारे सुनने में आया है कि सर्वलोक पितामह भगवान ब्रह्मा ने किसी समय यज्ञ करना चाहते थे; किंतु उन्हें अपने योग्य कोई ॠत्विज नहीं दिखायी दिया। तब उन्होंने बहुत वर्षों तक अपने मस्तक पर एक गर्भ धारण किया। जब एक हजार वर्ष बीत गये, तब ब्रह्माजी को छींक आयी और वह गर्भ नीचे गिर पड़ा। शत्रुदमन नरेश! उससे जो बालक प्रकट हुआ, उसका नाम ‘श्रुप’ रखा गया। महाराज! महात्मा ब्रह्माजी के उस यज्ञ में प्रजापति क्षुप ही ॠत्विज हुए। नृपश्रेष्ठ! ब्रह्मजी का वह यज्ञ आरम्भ होते ही वहाँ प्रत्यक्ष दीखने वाले यज्ञ की प्रधानता होने से ब्रह्म का वह दण्ड अन्तर्धान हो गया। दण्ड लुप्त होते ही प्रजा में वर्णसंकरता फैलने लगी। कर्तव्याकर्तव्य तथा भक्ष्याभक्ष्य का विचार सर्वथा उठ गया। फिर पेयापेय का ही विचार कैसे रह सकता था? सब लोग एक दूसरे की हिंसा करने लगे। उस समय गम्यागम्य विचार भी नहीं रह गया था। अपना और पराया धन एक-सा समझा जाने लगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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