महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 106 श्लोक 1-15

षडधिकशततम (106) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षडधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


कालकवृक्षीय मुनिका विदेहराज तथा कोसलराजकुमार में मेल कराना और विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बना लेना

राजा ने कहा-ब्रह्यन! मैं कपट और दम्भ का आश्रय लेकर जीवित नहीं रहना चाहता। अधर्म के सहयोग से मुझे बहुत बड़ी सम्पत्ति मिलती हो तो भी मैं उसकी इच्छा नहीं करता। भगवन्! मैंने तो पहले से ही इन सब दुर्गुणों का परित्याग कर दिया है, जिससे किसी का मुझ पर संदेह न हो और सबका सम्पूर्ण रूप से हित हो। मैं दया-धर्म का आश्रय लेकर ही इस जगत् में जीना चाहता हूँ। मुझसे यह अधर्मा चरण कदापि नहीं हो सकता, और ऐसा उपदेश देना आपको भी शोभा नहीं देता।

मुनि ने कहा-राज कुमार! तुम जैसा कहते हो, वैसे ही गुणों से सम्पन्न भी हो। तुम धार्मिक स्वभाव से युक्त हो और अपनी बु़द्धि के द्वारा बहुत कुछ देखने तथा समझने की शक्ति रखते हो। मैं तुम्हारे और राजा जनक-दोनों के ही हित के लिये अब स्वयं ही प्रयत्न करूँगा और तुम दोनों मे ऐसा घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करा दूगाँ, जो अमिट और चिरस्थायी हो। तुम्हारा जन्म उच्च कुल में हुआ है। तुम दयालु, अनेक शास्त्रों के ज्ञाता तथा राज्य संचालन की कला में कुशल हो। तुम्हारे-जैसे योग्य पुरुष को कौन अपना मन्त्री नहीं बनायेगा?

राज कुमार! तुम्हें राज्य से भ्रष्ट कर दिया गया है। तुम बड़ी भारी विपत्ति में पड़ गये हो तथापि तुमने क्रूरता को नहीं अपनाया, तुम दयायुक्त बर्ताव से ही जीवन बिताना चाहते हो। तात! सत्य प्रतिज्ञ विदेह राज जनक जब मेरे आश्रम पर पधारेंगे, उस समय मैं उन्हें जो भी आज्ञा दूँगा, उसे वे निःसंदेह पूर्ण करेंगे। तदनन्तर मुनि ने विदेह राज जनक को बुलाकर उन से इस प्रकार कहा-‘राजन् ! यह राजकुमार राजवंश में उत्पन्न हुआ है, इसकी आन्तरिक बातों को भी मैं जानता हूँ। ‘इसका हृदय दर्पण के समान शुद्ध और शरत्काल के चन्द्रमा की भाँति उज्ज्वल है। मैंने इसकी सब प्रकार से परीक्षा कर ली है। इसमें मैं कोई पाप या दोष नहीं देख रहा हूँ। ‘अतः इसके साथ अवश्य ही तुम्हारी संधि हो जानी चाहिये। तुम जैसा मुझ पर विश्वास करते हो, वैसा ही इस पर भी करो। कोई भी राज्य बिना मन्त्री के तीन दिन भी नहीें चलाया जा सकता। ‘मन्त्री वही हो सकता है, जो शूरवीर अथवा बुद्धिमान हो।

शौर्य और बुद्धि से ही लोक और परलोक दोनों का सुधार होता है। राजन्! उभय लोक की सिद्धि ही राज्य का प्रयोजन है। इसे अच्छी तरह देखो और समझो। कालकवृक्षीय मुनि राजा जनक का राजकुमार क्षेमदर्शी के साथ मेल करा रहे है। ’जगत् में धर्मात्मा राजाओं के लिये अच्छे मन्त्री के समान दूसरी कोई गति नहीं है। यह राजकुमार महामना हैं। इसने सत्पुरुषों के मार्ग का आश्रय लिया हैं। ’यदि तुमने धर्म को सामने रखकर इसे सम्मानपूर्वक अपनाया तो तुमसे सेवित होकर यह तुम्हारे शत्रुओं के भारी-से-भारी समुदायों को काबू में कर सकता है’। ’यदि यह अपने बाप-दादों के राज्य के लिये युद्ध में तुम्हें जीतने की इच्छा रखकर तुम्हारे साथ संग्राम छेड़ दे तो क्षत्रिय के लिये यह स्वधर्म का पालन ही होगा’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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