महाभारत शल्य पर्व अध्याय 65 श्लोक 24-46

पंचषष्टितम (65) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

Prev.png

महाभारत: शल्य पर्व:पंचषष्टितम अध्याय: श्लोक 24-46 का हिन्दी अनुवाद

वही यह विनाश का समय अब मुझे भी प्राप्त हुआ है, जिसे आप लोग प्रत्यक्ष देख रहे हैं। एक दिन मैं सारी पृथ्वी का पालन करता था और आज इस अवस्था को पहुँच गया हूँ। तो भी मुझे इस बात की खुशी है कि कैसी ही आपत्ति क्यों न आयी, मैं युद्ध में कभी पीछे नहीं हटा। पापियों ने मुझे मारा भी तो छल से। सौभाग्यवश मैंने रणभूमि में जूझने की इच्छा रखकर सदा ही उत्साह दिखाया है और भाई-बन्धुओं के मारे जाने पर स्वयं भी युद्ध में ही प्राण-त्याग कर रहा हूँ, इससे मुझे विशेष संतोष है। सौभाग्य की बात है कि मैं आप लोगों को इस प्रकार नरसंहार से मुक्ती देख रहा हूँ। साथ ही आपलोग सकुशल एवं कुछ करने में समर्थ हैं- यह मेरे लिये और भी उत्त‍म एवं प्रसन्नता की बात है। आप लोगों का मुझ पर स्वाभाविक स्नेह है, इसलिये मेरी मृत्यु से यहाँ आप लोगों को जो दुख और संताप हो रहा है, वह नहीं होना चाहिये। यदि आपकी दृष्टि में वेद-शास्त्र प्रामाणिक है तो मैंने अक्षय लोकों पर अधिकार प्राप्त कर लिया। मैं अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण के अद्‌भुत प्रभाव को मानता हुआ भी कभी उनकी प्रेरणा से अच्छी तरह पालन किये हुए क्षत्रिय धर्म से विचलित नहीं हुआ। मैंने उस धर्म का फल प्राप्त किया है; अत: किसी प्रकार भी मैं शोक के योग्य नहीं हूँ। आप लोगों ने अपने स्वरूप के अनुरूप योग्य पराक्रम प्रकट किेया और सदा मुझे विजय दिलाने की ही चेष्टा की तथापि देव के विधान का उल्‍लघंन करना किसी के लिये भी सर्वथा कठिन है। राजेन्द्र! इतना कहते-कहते दुर्योधन की आँखें आँसुओं से भर आयीं और वह वेदना से अत्यन्त व्याकुल होकर चुप हो गया। उससे कुछ बोला नहीं गया।

राजा दुर्योधन को शोक के आँसू बहाते देख अश्वत्थामा प्रलयकाल की अग्नि के समान क्रोध से प्रज्वलित हो उठा। रोष के आवेश में भरकर उसने हाथ पर हाथ दबाया और अश्रुगद्गद वाणी द्वारा उसने राजा दुर्योधन से इस प्रकार कहा- राजन। नीच पाण्डवों ने अत्यन्त क्रूरतापूर्ण कर्म के द्वारा मेरे पिता का वध किया परंतु उसके कारण भी मैं उतना संतप्त नहीं हूँ जैसा कि आज तुम्हारे वध के कारण मुझे कष्ट हो रहा है। प्रभो! मैं सत्य की शपथ खाकर जो कह रहा हूँ मेरी इस बात को सुनो। मैं अपने इष्ट आपूर्त दान धर्म तथा अन्य शुभ कर्मों की शपथ खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज श्रीकृष्णा के देखते-देखते सम्‍पूर्ण पांचालों को सभी उपायों द्वारा यमराज के लोक में भेज दूँगा। महाराज! इसके लिये तुम मुझे आज्ञा दे दो।

द्रोणपुत्र का यह मन को प्रसन्न करने वाला वचन सुनकर कुरुराज दुर्योधन ने कृपाचार्य से कहा- आचार्य! आप शीघ्र ही जल से भरा हुआ कलश ले आइये। राजा की वह बात मानकर ब्राह्मण शिरोमणि कृपाचार्य जल से भरा हुआ कलश ले उसके समीप आये। महाराज! प्रजानाथ! तब आपके पुत्र ने उनसे कहा- द्विजश्रेष्ठ! आपका कल्याण हो। यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो मेरी आज्ञा से द्रोण पुत्र का सेनापति के पद पर अभिषेक कीजिये। राजा की वह बात सुनकर शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने उसकी आज्ञा के अनुसार अश्वत्थामा का सेनापति के पद पर अभिषेक किया। महाराज! अभिषेक हो जाने पर अश्वत्थामा ने नृपश्रेष्ठ दुर्योधन को हृदय से लगाया और अपने सिंहनाद से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वमनित करते हुए वहाँ से प्रस्थान किया। राजेन्द्र! खून में डूबे हुए दुर्योधन ने भी सम्पूर्ण भूतों के मन में भय उत्पन्न करने वाली वह रात वहीं व्यातीत की। नरेश्वर! शोक से व्याकुलचित्त हुए वे तीनों महारथी उस युद्धभूमि से तुरंत ही दूर हट गये और चिन्ता एवं कर्त्तव्य के विचार में निमग्न हो गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदापर्व में अश्वत्थामा का सेनापति के पद पर अभिषेक विषयक पैंसठवां अध्याय पूरा हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः