महाभारत शल्य पर्व अध्याय 41 श्लोक 1-19

एकचत्वारिंश (41) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: एकचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


अवाकीर्ण और यायात तीर्थ की महिमा के प्रसंग में दाल्भ्य की कथा और ययाति के यज्ञ का वर्णन


वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! ब्राह्मणत्व की प्राप्ति कराने वाले उस तीर्थ से प्रस्थित होकर यदुनन्दन बलराम जी अवाकीर्ण तीर्थ में गये, जहाँ आश्रम में रहते हुए महातपस्वी धर्मात्मा एवं प्रतापी दल्भ पुत्र बक ने महान क्रोध में भरकर घोर तपस्या द्वारा अपने शरीर को सुखाते हुए विचित्र वीर्य कुमार राजा धृतराष्ट्र के राष्ट्र का होम कर दिया था। पूर्व काल में नैमिषारण्य निवासी ऋषियों ने बारह वर्षों तक चालू रहने वाले एक सत्र का आरम्भ किया था। जब वह पूरा हो गया, तब वे सब ऋषि विश्वजित नामक यज्ञ के अन्त में पाञ्चाल देश में गये। वहाँ जाकर उन मनस्वी मुनियों ने उस देश के राजा से दक्षिणा के लिये धन की याचना की। राजन! वहाँ महर्षियों ने पाञ्चालों से इक्कीस बलवान और नीरोग बछड़े प्राप्त किये। तब उन में से दल्भ पुत्र बक ने अन्य सब ऋषियों से कहा- ‘आप लोग इन पशुओं को बांट लें। मैं इन्हें छोड़कर किसी श्रेष्ठ राजा से दूसरे पशु मांग लूंगा’।

नरेश्वर! उन सब ऋषियों से ऐसा कहकर वे प्रतापी उत्तम ब्राह्मण राजा धृतराष्ट्र के घर पर गये। निकट जाकर दाल्भ्य ने कौरव नरेश धृतराष्ट्र से पशुओं की याचना की। यह सुनकर नृपश्रेष्ठ धृतराष्ट्र कुपित हो उठे। उनके यहाँ कुछ गौएं दैवेच्छा से मर गयी थीं। उन्हीं को लक्ष्य करके राजा ने क्रोध पूर्वक कहा- ‘ब्रह्मबन्धो! यदि पशु चाहते हो तो इन मरे हुए पशुओं को ही शीघ्र ले जाओ’। उनकी वैसी बात सुन कर धर्मज्ञ ऋषि ने चिन्तामग्न होकर सोचा- ‘अहो! बड़े खेद की बात है कि इस राजा ने भरी सभा में मुझसे ऐसा कठोर वचन कहा है’। दो घड़ी तक इस प्रकार चिन्ता करके रोष में भरे हुए द्विजश्रेष्ठ दाल्भ्य ने राजा धृतराष्ट्र के विनाश का विचार किया। वे मुनि श्रेष्ठ उन मृत पशुओं के ही मांस काट-काट कर उनके द्वारा राजा धृतराष्ट्र के राष्ट्र की ही आहुति देने लगे। महाराज! सरस्वती के अवाकीर्ण तीर्थ में अग्नि प्रज्वलित करके महातपस्वी दल्भ पुत्र बक उत्तम नियम का आश्रय ले उन मृत पशुओं के मांसो द्वारा ही उनके राष्ट्र का हवन करने लगे।

राजन! वह भयंकर यज्ञ जब विधिपूर्वक आरम्भ हुआ, तब से धृतराष्ट्र का राष्ट्र क्षीण होने लगा। प्रभो! जैसे बड़ा भारी वन कुल्हाड़ी से काटा जा रहा हो, उसी प्रकार उस राजा का राज्य क्षीण होता हुआ भारी आफत में फंस गया; वह संकटग्रस्त होकर अचेत हो गया। राजन! अपने राष्ट्र को इस प्रकार संकट मग्न हुआ देख वे नरेश मन-ही-मन बहुत दुखी हुए और गहरी चिन्ता में डूब गये। फिर ब्राह्मणों के साथ अपने देश को संकट से बचाने का प्रयत्न करने लगे। अनघ! जब किसी प्रकार भी वे भूपाल अपने राष्ट्र का कल्याण साधन न कर सके और वह दिन-प्रतिदिन क्षीण होता ही चला गया, तब राजा और उन ब्राह्मणों को बड़ा खेद हुआ। नरेश्वर जनमेजय! जब धृतराष्ट्र अपने राष्ट्र को उस विपत्ति से छुटकारा दिलाने में समर्थ न हो सके, तब उन्होंने प्राश्नि कों (प्रश्न पूछने पर भूत, वर्तमान और भविष्य की बातें बताने वालों) को बुला कर उन से इसका कारण पूछा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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