महाभारत विराट पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-10

द्विपंचाशत्तम (52) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: द्विपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


पितामह भीष्म की सम्मति

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्म जी ने कहा - कला, काष्ठ, मुहूर्त, दिन, मास, पक्ष, नक्षत्र, ग्रह, ऋतु और संवत्सर - ये सब ऐ दूसरे से जुड़ते हैं। इस तरह काल के इन छोटे छोटे विभागों द्वारा यह सम्पूर्ण कालचक्र चल रहा है। इन पक्ष-मास आदि के समय के बढ़ने घटने से और ग्रह नक्षत्रों की गति के व्यतिक्रम से हर पाँचवें वर्ष में दो महीने अधिमास के बढ़ जाते हैं। इस प्रकार इन तरह वर्षों के पूर्ण होने के पश्चात भी पाण्डवों के पाँच महीने बारह दिन और अधिक बीत चुके हैं। ऐसा मेरा विचार है [1] इन पाण्डवों ने जो जो प्रतिज्ञाएँ की थीं, उन सबका यथावत् पालन किया है; अतएव इस बात को अच्छी तरह जानकर ही अर्जुन यहाँ आये हैं। सभी पाण्डव महात्मा हैं और सभी धर्म तथा अर्थ के ज्ञाता हैं। जिनके नेता राजा युधिष्ठिर हैं, वे धर्म के विषय में कैसे कोई अपराध कर सकते हैं ? कुन्ती के पुत्र लोभी नहीं हैं। उन्होंने तपस्या आदि कठिन कर्म किये हैं। वे अधर्म या अनुचित उपाय से ( धर्म को गँवाकर ) केवल राज्य लेने के इच्छुक नहीं हैं ? कुरुकुल को आनन्द देने वाले पाण्डव उसी समय पराक्रम करने में समर्थ थे, किंतु वे धर्म के बन्णन में बँधे थे; इसलिये क्षत्रिय व्रत से विचलित नहीं हुए। यदि कोई अर्जुन को असत्यवादी कहेगा तो वह पराजय को प्राप्त होगा। कुन्ती के पुत्र मौत को गले लगा सकते हैं, किंतु किसी प्रकार असत्य का आश्रय नहीं ले सकते। नरश्रेष्ठ पाण्डव समय आने पर अपने पाने योग्य भाग या हक को भी नहीं छोड़ सकते, भले ही वज्रधारी इन्द्र उस वस्तु की रक्षा करते हों। पाण्डवों को ऐसा ही पराक्रम है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चान्द्र वर्ष तीन सौ चैवन दिनो का होता है और सौर वर्ष तीन सौ पैंसठ दिन पंद्रह घड़ी एवं कुछ पलों का हुआ करता है। इस हिसाब से तेरह सौर वर्षों में चान्द्र वर्ष के लगभग पाँच महीने अधिक हो जाते हैं, इन वर्षों में यदि छः बार अधिमास पड़ जायें, तो जिस तिथि को पाण्डवों का वनवास हुआ था, तेरहवें वर्ष की उसी तिथि तक तेरह वर्षों से पाँच महीने और बारह दिन अणिक हो सकते हैं। पाण्डवों ने सूर्य की संक्रांति के अनुसार वर्ष की गणना की थी; अतः उन्होंने अधिमास आदि के कारण बढ़े हुए महीनों और दिनों की संख्या को अलग नहीं माना। इसीलिये उनकी गणना में तेरह ही वर्ष हुए। भीष्म जी ने चान्द्र वर्ष की गणना का आश्रय लेकर बढ़े हुए महीनों और दिनों को भी गणना में ले लिया। अतः उनके हिसाब से उस दिन तक तेरह वर्ष पाँच मास बारह दिन अणिक हुए। यह कालभेद सौर और चान्द्र वर्षों की गणना के भेद से ही हुआ है। वास्तव में सूर्य की संक्रान्ति के हिसाब से उस समय तक पाण्डवों के तेरह वर्ष छः दिन हो चुके थे। चान्द्र वर्ष की गणना के अनुसार वही समय तेरह वर्ष पाँच माह बारह दिन हो गया।

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