महाभारत विराट पर्व अध्याय 51 श्लोक 1-13

एकपंचाशत्तम (51) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: एकपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


भीष्मजी के द्वारा सेना में शानित और एकता बनाये रखने का प्रयास तथा द्रोणाचार्य के द्वारा दुर्योधन की रक्षा के लिये प्रयत्न

भीष्मजी बोले - दुर्योधन! अश्वत्थामा ठीक विचार कर रहे हैं। कृपाचार्य की दृष्टि भी ठीक है। कर्ण तो केवल क्षत्रिय धर्म की दृष्टि से युद्ध करना चाहता है। विज्ञ पुरुष को अपने आचार्य की निन्दा या तिरस्कार नहीं करना चाहिये। मेरा भी विचार यही है कि देश, काल का विचार करके ही युद्ध करना उचित है। जिसके सूर्य के समान तेजस्वी और प्रहार करने में समर्थ पाँच शत्रु हों और उन शत्रुओं का अभ्युदय हो रहा हो, तो उस दशा में विद्वान् पुरुष को भी कैसे मोह न होगा ?। स्वार्थ के विषय में सोचते समय सभी मनुष्य - धर्मज्ञ पुरुष भी मोह में पड़ जाते हैं; अतः राजन्! यदि तुम्हें जचे तो मैं इस विध्याय में अपनी सलाह भी देता हूँ। कर्ण ने तुमसे जो कुछ कहा है, वह तेज एवं उत्साह को बढ़ाने के लिये ही कहा है। आचार्य पुत्र क्षमा करें। इस समय महान् कार्य उपस्थ्सित है। यह समय आपस के विरोध का नहीं है; विशेषतः ऐसे मौके पर कि कुन्ती नन्दन अर्जुन युद्ध के लिये उपस्थ्सित हैं।

पूजनीस आचार्य द्रोण जैसे सूर्य प्रभा और चन्द्रमा में लक्ष्मी ( शोभा ) सर्वथा विद्यमान रहती है - कभी कम नहीं होती, उसी प्रकार आप लोगों का अस्त्र विद्या में जो पाण्डित्य है, वह अक्षुण्ण है।। इस प्रकार आप लोगों में ब्राह्मणत्व तथा ब्रह्मास्त्र दोनों ही प्रतिष्ठित हैं, यद्यपि प्रायः एक व्यक्ति में चारों वेदों का ज्ञान देखा जाता है, तो दूूसरे में क्षात्रधर्म का। ये दोनों बातें पूर्ण रूप से किसी एक व्यक्ति में हमने नहीं सुनी हैं। केवल भरतवंशियों में आचार्य कृप, द्रोण और उनके पुत्र अश्वत्थामा ही ये दोनों शक्तियाँ ( ब्रह्मबल और क्षात्रबल ) हैं। इनके सिवा और कहीं उक्त दोनों बातों का एकत्र समावेश नहीं है। यह मेरा दृढ़ विश्वास है। राजन्! वेदान्त, पुराण और प्राचीन इतिहास के ज्ञान में जमदग्नि नन्दन परशुराम के ािवा दूसरा कौर मनुष्य द्रोणाचार्य से बढ़कर हो सकता है ?। ब्रह्मास्त्र और वेद - ये दोनों वस्तुएँ हमारे आचार्यों के सिवा अन्य़ कहीं नहीं देखी जातीं। आचार्य पुत्र क्षमा करें, यह समय आपस में फूट पैदा करने का नहीं है। हम सब लोग मिलकर यहाँ आये हुए अर्जुन से युद्ध करेंगे। मनीषी पुरुषों ने सेना का विनाश करने वाले जितने संकट बताये हैं, उनमें आपस की फूट को सबसे प्रधान कहा है। विद्वानों ने इस फूट को महान् पापउ माना है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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