महाभारत विराट पर्व अध्याय 41 श्लोक 1-12

एकचत्वारिंश (41) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: एकचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


उत्तर का अर्जुन के आदेश के अनुसार शमी वृक्ष से पाण्डवों के दिव्य धनुष आदि उतारना

उत्तर बोला - मैंने तो सुन रक्खा है कि इस वृक्ष में कोई लाश बँधी है? ऐसी दशा में मैं राजकुमार होकर अपने हाथ से उसका स्पर्श कैसे कर सकता हूँ ?। एक तो मैं क्षत्रिय, दूसरे महान् राजकुमार तथा तीसरे मन्त्र और यज्ञों का ज्ञाता एवं सत्पुरुष हूँ, अतः मुझे ऐसी अपवित्र वसतु का स्पर्श करना उचित नहीं है। बृहन्नले! यदि मैं शव का स्पर्श कर लूँ, तो मुर्दा ढोने वालों ही भाँति अपवित्र हो जाऊँगा, फिर तुम मुझे व्यवहार में लाने योग्य शुद्ध कैसे कर सकोगी?।

बृहन्नला ने कहा - राजेन्द्र! तुम इन धनुषों को छूकर भी व्यवहार में लाने योग्य और पवित्र ही रहोगे। डरो मत ये केवल धनुष हैं; इनमें कोई शव नहीं है। राजकुमार! तुम मनस्वी पुरुषों के उत्तम कुल में उत्पन्न और मत्स्य नरेश के पुत्र हो। भला, मैं तुमसे कोई निन्दित कर्म कैसे करवा सकती हूँ?। वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! अर्जुन के ऐसा कहने पर कुण्डलधारी विराट पुत्र उत्तर विवश हो रथ से कूदकर शमी वृक्ष पर चढ़ गया। तब रथ पर बैइे हुए शत्रुनाशक पृथा पुत्र धनुजय ने श्ररसन के स्वर में कहा - ‘इन धनुषों को जल्दी वुक्ष से नीचे उतारो औश्र इन सबका पत्रमय वेष्टन भी शीघ्र हटा दो।-।

तब उत्तर ने विशाल वक्षःस्थल वाले पाण्डवों के बहुमूल्य धनुषों को वृक्ष से नीचे ले आकर उन पर जो पत्तों के वेष्टन लगे थे, उन्हें खोलकर हटाया। फिर उन धनुषों तथा उनकी डोरियों को सब ओर से खोलकर अर्जुन के पास ले आया। उसमें अन्य चार धनुषों के साथ रक्खे हुए गाण्डीव धनुष को उत्तर ने देखा। वेष्टन खोलने पर उन सूर्य के समान तेजस्वी धनुषों की प्रभा चारों ओर फैल गयी, जैसे उदय होने पर ग्रहों का दिव्य प्रकाश सब ओर छा जाता है। जँभाई लेने के लिये मुँह खोले हुए विशाल सर्पों की भाँति उन धनुषों का रूप देखकर उत्तर के शरीर में रोमांच हो आया और वह क्षण भर में भय से उद्विग्न हो गया। राजन्! तदनन्तर उन प्रभापूर्ण विशाल धनुषों का स्पर्श करके विराट पुत्र उत्तर ने अर्जुन से इस प्रकार कहा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर ग्रोहर के अवसर पर वृक्ष से अस्त्रों के उतारने से सम्बन्ध रखने वाला इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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