महाभारत विराट पर्व अध्याय 39 श्लोक 1-13

एकोनचत्वारिंश (39) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: एकोनचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


द्रोणाचार्य का अर्जुन के अलौकिक पराक्रम की प्रशंसा

वैशम्पायन जी कहते हैं - राजन! नपुंसक वेष में रथ पर बैैठे हुए नरश्रेष्ठ अर्जुन को, जो उत्तर को रथ पर बिठाकर शमी वृक्ष की ओर जा रहे थे, भीष्म - द्रोण आदि कौरव महारथियों ने देखा। यह देखकर अर्जुन की आशंका होने से वे सबके सब मन ही मन भयभीत हो उठे। उन सब महारथियों को हतात्साह देख तथा अद्भुत उत्पातों को भी देखकर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ भरद्वाज नन्दन द्रोण बोले -‘इस समय कंकड़ बरसाने वाली प्रचण्ड एवं रूखी हवा चल रही है। राख के समान रंग वाले अन्धकार से आकाश आच्छादित हो रहा है। ‘रूक्ष वर्ण वाले अद्भुत बादल भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं’ म्यानों से अनेक प्रकार के शस्त्र निकल रहे हैं। ‘दिशाओं में आग सी लग रही है और उनमें से भयंकर गीदडि़याँ चीत्कार करती हैं। घोड़े आँसू बहाते हैं और रथों की ध्वजाएँ बिना हिलाये ही हिल रही हैं। ‘यहाँ जैसे जैसे बहुत से रूप ( लक्षण ) दिखायी दे रहे हैं, उनसे यह सूचित होता है कि कोई महान् भय उपस्थित होने वाला है; अतः आप सब लोग सावधान हो जायँ। ‘आप लोग अपने आपकी रक्षा तो करें ही, सेना का भी व्यूह बना लें। युद्ध में बहुत बड़ा नरसंहार होने वाला है।

उसकी प्रतीक्षा करें। और इस गोधन की भी रखवाली करते रहें। ‘नपुसक वेश में ये समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महान् धनुर्धर अर्जुन ही आ गये हैं, इसमें संदेह नहीं है। ‘गंगा नन्दन! जिनकी ध्वजा पर हनुमान्जी विराजमान होते हैं, एक वृक्ष का नाम ( अर्जुन ) ही जिनका नाम है और जो इन्द्र के पुत्र हैं, वे किरीटधारी धनंजय ही नारी वेश धारण किये यहाँ आ रहे हैं। ये जिसको जीतकर आज हमारी इन गौओं को लौटा ले जायेंगे, उस दुर्योधन की रक्षा कीजिये। ‘ये वे ही शत्रुओं को संताप देने वाले महापराक्रमी सव्यसाची अर्जुन हैं, जो ( सामना होने पर ) सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरों के साथ भी बिना युद्ध किये पीछे नहीं लौट सकते।। ‘कौरवों! साक्षात् इन्द्र ने भी इन्हें अस्त्र विद्या की शिक्षा दी है। युद्ध में कुपित होने पर ये साक्षात् इन्द्र के समान पराक्रम दिखाते हैं। तुम लोगों ने इन शूरवीर को वन में ( अनुचित ) क्लेश पहुँचाया है। मुझे इनका सामना करने वाला कोई योद्धा नहीं दिखायी देता। ।12।। ‘सुना जाता है, हिमालय पर्वत पर किरात वेश में छिपे हुए साक्षात् भगवान् शंकर को भी अर्जुन ने युद्ध में संतुष्ट किया था’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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