महाभारत विराट पर्व अध्याय 38 श्लोक 1-11

अष्टात्रिंश (38) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

उत्तर कुमार का भय और अर्जुन का उसे आश्वासन देकर रथ पर चढ़ाना

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! राजधानी से निकलकर विराट कुमार उत्तर ने सर्वथा निर्भय हो सारथि से कहा - ‘बृहनले! जहाँ कौरव गये हैं, उधर ही रथ ले चलो। ‘मैं यहाँ विजय की आशा से एकत्र होने वाले समसत कौरवों को परास्त करके उनसे अपनी गौएँ वापस ले शीघ्र अपने नगर में लौट आऊँगा। तब पाण्डु नन्दन अर्जुन ने उत्तर के उत्तम जाति के घोड़ों को हाँका और उनकी बाग ढीली कर दी। नरश्रेष्ठ अर्जुन के हाँकने पर, सोने की माला पहने हुए वे घोड़े हवा के समान वेग से चलने लगे, मानो आकाश में अपनी टाप अड़ाते हुए रथ लिये उड़े जा रहे हों। थोड़ी ही दूर जाने पर शत्रुहनता विराट पुत्र उत्तर और धनंजय ने महाबली कौरवों की विशाल सेना देखी। श्मशान भूमि के समीप जाकर उन्होंने कौरवों को पा लिया। वे दोनों उस शमी वृक्ष के आस पास सब ओर सेना का व्यूह बनाकर खड़े हुए कौरव सैनिकों की ओर देखने लगे। उनकी वह विशाल वाहिनी समुद्र के समान जान पड़ती थी। जब वह चलती, तब ऐसा जान पड़ता था, मानो आकाश में असंख्य वृक्षों से भरा हुआ वन चल रहा हो। कुरुश्रेष्ठ जनमेजय!

कौरव सेना के चलने से ऊपर उठी हुई धरती की धूल अनतरिक्ष को छूती सी दिखायी देती थी। उसके कारण समसत प्राणियों की दृष्टि का लोप सा हो गया था - किसी को कुछ सूझ नहीं पड़ता था। वह भारी सेना हाथी, घोड़ों एवं रथों से भरी हुई थी। कर्ण, दुर्योधन, कृपाचार्य, भीष्म, अश्वत्थामा और महान् धनुर्धर एवं परम बुद्धिमान् द्रोण उसकी रक्षा कर रहे थे। उसे देखकर विराट पुत्र उत्तर के रोंगटे खड़े हो गये। उसने भय से व्याकुल होकर अर्जुन से कहा।

उत्तर बोला - बृहन्नले! मुझमें कौरवों के साथ युद्ध करने का साहस नहीं है; क्योंकि देखो, भय के कारण मेरे रोएँ खड़े हो गये हैं। इस सेना के भीतर बहुतेरे बड़े - बड़े वीर हैं। यह बड़ी भयानक जान पड़ती है। इसे परास्त करना तो देवताओं के लिये भी अत्यनत कठिन है। कौरवों की सेना का कहीं अनत नहीं है। मैं इसका सामना नहीं कर सकता। भयानक धनुष वाली भरत वंशियों की इस विशाल वाहिनी में प्रवेश करना तो दूर रहे, मैं उसके सम्बन्ध में बात भी नहीं कर सकता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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