महाभारत वन पर्व अध्याय 69 श्लोक 1-20

एकोनसप्ततितम (69) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोनसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


दमयन्ती का अपने पिता के यहाँ जाना और वहाँ से नल को ढूँढने के लिये अपना संदेश देकर ब्राह्मणों को भेजना

सुदेव ने कहा- देवि! विदर्भ देश के राजा महातेजस्वी भीम बड़े धर्मात्मा हैं। यह उन्हीं की पुत्री है। इस कल्याणस्वरूपा राजकन्या का नाम दमयन्ती है। वीरसेनपुत्र नल निषध नरेश सुप्रसिद्ध राजा हैं। उन्हीं (परम) बुद्धिमान्, पुण्यश्लोक नल की यह कल्याणमयी पत्नी है। एक दिन राजा नल अपने भाई के द्वारा जूए में हार गये। उसी में उनका सारा राज्य चला गया। वे दमयन्ती के साथ वन में चले गये। तब से अब तक किसी को उनका पता नहीं लगा। हम अनेक ब्राह्मण दमयन्ती को ढूंढने के लिये इस पृथ्वी पर विचर रहे हैं। आज आपके पुत्र के महल में मुझे यह राजकुमारी मिली है। रूप में इसकी समानता करने वाली कोई भी मानवकन्या नहीं है। इसकी दोनों भौहों के बीच एक जन्मजात उत्तम तिल का चिह्न है। मैंने देखा है, इस श्यामा राजकुमारी के ललाट में वह कमल के समान चिह्न छिपा हुआ है। मेघमाला से ढंके हुए चन्द्रमा की भाँति उसका वह चिह्न मैल से ढक गया है। विधाता के द्वारा निर्मित यह चिह्न इसके भावी ऐश्वर्य का सूचक है। इस समय यह प्रतिपदा की मलिन चन्द्रकला के समान अधिक शोभा नहीं पा रही है। इसका सुवर्ण-जैसा सुन्दर शरीर मैल से व्याप्त हो संस्कारशून्य (मार्जन आदि से रहित) होने पर भी स्पष्ट रूप से उद्भासित हो रहा है। इसका रूप सौन्दर्य नष्ट नहीं हुआ है। जैसे छिपी हुई आग अपनी गर्मी से पहचान ली जाती है, उसी प्रकार यद्यपि देवी दमयन्ती मलिन शरीर से युक्त है तो भी इस ललाटवर्ती तिल के चिह्न से ही मैंने इसे पहचान लिया है'।

युधिष्ठिर! सुदेव का यह वचन सुनकर सुनन्दा ने दमयन्ती के ललाटवर्ती चिह्न को ढंकने वाली मैल धो दी। मैल धुल जाने पर उसके ललाट का वह चिह्न उसी प्रकार चमक उठा, जैसे बादल रहित आकाश में चन्द्रमा प्रकाशित होता है। भारत! उस चिह्न को देखकर सुनन्दा और राजमाता दोनों रोने लगीं और दमयन्ती को हृदय से लगाये दो घड़ी तक स्तब्ध खड़ी रहीं। 'सुन्दरी मैं और तुम्हारी माता दोनों दशार्ण देश के स्वामी महामना राजा सुदामा की पुत्रियां हैं। तुम्हारी मां का ब्याह राजा भीम के साथ हुआ और मेरा चेदिराज वीरबाहु के साथ। तुम्हारा जन्म दशार्ण देश में मेरे पिता के ही घर पर हुआ और मैंने अपनी आंखों देखा। भामिनि! तुम्हारे लिये जैसा पिता का घर है, वैसा ही मेरा घर है। दमयन्ती! यह सारा ऐश्वर्य जैसे मेरा है, उसी प्रकार तुम्हारा भी है’।

युधिष्ठिर! तब दमयन्ती ने प्रसन्न हृदय से अपनी मौसी को प्रणाम करके कहा- ‘मां! यद्यपि तुम मुझे पहचानती नहीं थीं, तब भी मैं तुम्हारे यहाँ बड़े सुख से रही हूँ। तुमने मेरे इच्छानुसार सारी सुविधाएं कर दीं और सदा तुम्हारे द्वारा मेरी रक्षा होती रही। अब यदि मैं यहाँ रहूँ तो यह मेरे लिये अधिक-से-अधिक सुखदायक होगा, इसमें संशय नहीं है, किंतु मैं बहुत दिनों से प्रवास में भटक रहीं हूं, अतः माताजी! मुझे विदर्भ जाने की आज्ञा दीजिये। मैंने अपने बच्चों को पहले ही कुण्डिनपुर भेज दिया था। वे वहीं रहते हैं। पिता से तो उनका वियोग हो ही गया है; मुझसे भी वह बिछुड़ गये हैं, ऐसी दशा में शोकार्त बालक कैसे रहते होंगे?'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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