महाभारत वन पर्व अध्याय 65 श्लोक 1-16

पंचषष्टितम (65) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: पंचषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


जंगली हाथियों द्वारा व्यापारियों के दल का सर्वनाश तथा दुःखित दमयन्ती का चेदिराज के भवन में सुखपूर्वक निवास

बृहदश्व मुनि कहते हैं- राजन्! दल के संचालन की वह बात सुनकर निर्दोष एवं सुन्दर अंगों वाली दमयन्ती पतिदेव के दर्शन के लिये उत्सुक हो व्यापारियों के उस दल के साथ ही यात्रा करने लगी। तदनन्तर बहुत समय के बाद एक भयंकर विशाल वन में पहुँचकर उन व्यापारियों ने एक महान् सरोवर देखा, जिसका नाम था, पद्म-सौगन्धिक। वह सब ओर से कल्याणप्रद जान पड़ता था। उस रमणीय सरोवर के पास घास और ईन्धन की अधिकता थी, फूल और फल भी वहाँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते थे। उस तालाब पर बहुत-से पक्षी निवास करते थे। सरोवर का जल स्वच्छ और स्वादु था, वह देखने में बड़ा ही मनोहर और अत्यन्त शीतल था। व्यापारियों के वाहन बहुत थक गये थे। इसलिये उन्होंने वहीं पड़ाव डालने का निश्चय किया। समूह अधिपति से अनुमति लेकर सब लोगों ने उस उत्तम वन में प्रवेश किया और वह महान् जनसमुदाय सरोवर के पश्चिम तट पर ठहर गया।

तत्पश्चात् आधी रात के समय जब कहीं से भी कोई शब्द सुनायी नहीं देता था और दल के सभी लोग थककर सो गये थे, उस समय गजराजों के मद की धारा से मलिन जल वाली पहाड़ी नदी में पानी पीने के लिये (जंगली) हाथियों का एक झुंड आ निकला। उस झुंड ने व्यापारियों के सोये हुए दल को और उनके साथ आये हुए बहुत से हाथियों को भी देखा। तब वन में रहने वाले उन सभी मदोन्मत्त गजों ने उन ग्रामीण हाथियों को देखकर उन्हें मार डालने की इच्छा से उन पर वेगपर्वूक आक्रमण किया। पर्वत की चोटी से टूटकर पृथ्वी पर गिरने वाले बड़े-बड़े शिखरों के समान उन आक्रमणकारी जंगली हाथियों का वेग (उस यात्रीदल के लिये) अत्यन्त दुःसह था। ग्रामीण हाथियों पर आक्रमण करने की चेष्टा वाले उन वनवासी गजराजों के वन्यमार्ग अवरुद्ध हो गये थे। सरोवर के तट पर व्यापारियों का महान् समुदाय उनका मार्ग रोककर सो रहा था। उन हाथियों ने सहसा पहुँचकर समूचे दल को कुचल दिया।

कितने ही मनुष्य धरती पर पड़े-पड़े छटपटा रहे थे। उस दल के कितने ही पुरुष हाहाकार करते हुए बचाव की जगह खोजते हुए जंगल के पौधों के समूह में भाग गये। बहुत-से मनुष्य तो नींद के मारे अन्धे हो रहे थे। हाथियों ने किन्हीं को दांतों से, किन्हीं को सूंडों से और कितनों को पैरों से घायल कर दिया। उनके बहुत-से ऊंट और घोड़े मारे गये और उस समुदाय में बहुत-से पैदल लोग भी थे। वे सब लोग उस समय भय से चारों और भागते हुए एक-दूसरे से टकराकर चोट खा जाते थे। घोर आर्तनाद करते हुए सभी लोग धरती पर गिरने लगे। कुछ लोग बड़े वेग से वृक्षों पर चढ़ते हुए नीचे की विषम भूमियों पर गिर पड़ते थे।

राजन्! इस प्रकार दैववश बहुतेरे जंगली हाथियों ने आक्रमण करके (प्रायः) उन सम्पूर्ण समृद्धिशाली व्यापारियों के समुदाय को नष्ट कर दिया। उस समय वहाँ तीनों लोकों को भय में डालने वाला महान् आर्तनाद एवं चीत्कार हो रहा था। कोई कहता- ‘अरे! इधर बड़ जोर की आग प्रज्वलित हो उठी है। यह भारी संकट आ गया (अब) दौड़ो और बचाओ।’ दूसरा कहता- ‘अरे! ये ढेर-के-ढेर रत्न बिखरे पड़े हैं, इन्हें सम्हालकर रखो। इधर-उधर भागते क्यों हो?'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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