महाभारत वन पर्व अध्याय 27 श्लोक 22-40

सप्तविंश (27) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍य पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्तविंश अध्याय: श्लोक 22-40 का हिन्दी अनुवाद


विविध सवारियाँ और नाना प्रकार के वस्त्रों से जिनका सत्कार होता था, उन्हीं भीमसेन को वन में कष्ट उठाते देख शत्रुओं के प्रति आपका क्रोध प्रज्वलित क्यों नहीं होता? ये शक्तिशाली भीमसेन युद्ध में समस्त कौरवों को नष्ट कर देने का उत्साह रखते हैं, परंतु आपकी प्रतिज्ञापूर्ति की प्रतीक्षा करने के कारण अब तक शत्रुओं के अपराध को सहन करते हैं। राजन! आपके जो भाई अर्जुन दो भुजाओं से युक्त होने पर भी सहस्र भुजाओं से विभूषित कार्यवीर्य अर्जुन के समान पराक्रमी हैं, बाण चलाने में अत्यन्त फुर्ती रखने के कारण जो शत्रुओं के लिये काल, अन्तक और यम के समान भयंकर हैं; महाराज! जिनके शस्त्रों के प्रताप से समस्त भूपाल नतमस्तक हो आपके यज्ञ में ब्राह्मणों की सेवा के लिये उपस्थित हुए थे, उन्हीं देव-दानव पूजित पुरुषसिंह अर्जुन को चिन्तामग्न देखकर आप शत्रुओं पर क्रोध क्यों नहीं करते? भारत! दुःख के अयोग्य और सुख भोगने के योग्य अर्जुन को वन में दुःख भोगते देखकर भी जो शत्रुओं के प्रति आपका क्रोध नहीं उमड़ता, इससे मैं मोहित हो रही हूँ। जिन्होंने एकमात्र रथ की सहायता से देवताओं, मनुष्यों और नागों पर विजय पायी है, उन्हीं अर्जुन को वनवास का दुःख भोगते देख आपका क्रोध क्यों नहीं बढ़ता? परंतप! जिन्होंने नरेशों के दिये हुए अद्भुत आकार वाले रथों, घोड़ों और हाथियों से घिरे कितने ही राजाओं से बलपूर्वक धन लिये थे, जो एक ही वेग से पाँच सौ बाणों का प्रहार करते हैं, उन्हीं अर्जुन को वनवास का कष्ट भोगते देख शत्रुओं पर आपका क्रोध क्यों नहीं बढ़ता?

जो युद्ध में ढाल और तलवार से लड़ने वाले वीरों में श्रेष्ठ हैं, जिनकी कद-काठी ऊँची है तथा जो श्यामवर्ण के तरुण हैं, उन्हीं नकुल को आज वन में कष्ट उठाते देखकर आपको क्रोध क्यों नहीं होता? महाराज युधिष्ठिर! माद्री के परम सुन्दर पुत्र शूरवीर सहदेव को वनवास का दुःख भोगते देखकर आप शत्रुओं को क्षमा कैसे कर रहे हैं? नरेन्द्र! नकुल और सहदेव दुःख भोगने के योग्य नहीं हैं। इन दोनों को आज दु:खी देखकर आपका क्रोध क्यों नहीं बढ़ रहा है? मैं द्रुपद के कुल में उत्पन्न हुई महात्मा पाण्डु की पुत्रवधू, वीर धृष्टद्युम्न की बहिन तथा वीरशिरोमणि पाण्डवों की पतिव्रता पत्नी हूँ। महाराज! मुझे इस प्रकार वन में कष्ट उठाती देखकर भी आप शत्रुओं के प्रति क्षमाभाव कैसे धारण करते हैं?

भरतश्रेष्ठ! निश्चय ही आपके हृदय में क्रोध नहीं है, क्योंकि मुझे और अपने भाइयों को भी कष्ट में पड़ा देख आपके मन में व्यथा नहीं होती है। संसार में कोई भी क्षत्रिय क्रोधरहित नहीं होता, क्षत्रिय शब्द की व्युत्पत्ति ही ऐसी है, जिससे क्रोध होना सूचित होता है।[1] परंतु आज आप जैसे क्षत्रिय में मुझे यह क्रोध का अभाव क्षत्रियत्व के विपरीत-सा दिखायी देता है। कुन्तीनन्दन! जो क्षत्रिय समय आने पर अपने प्रभाव को नहीं दिखाता, उसका सब प्राणी सदा तिरस्कार करते हैं। महाराज! आपको शत्रुओं के प्रति किसी प्रकार भी क्षमाभाव नहीं धारण करना चाहिये। तेज से ही उन सबका वध किया जा सकता है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इसी प्रकार जो क्षत्रिय क्षमा करने के योग्य समय आने पर शान्त नहीं होता, वह सब प्राणियों के लिये अप्रिय हो जाता है और इस लोक तथा परलोक में भी उसका विनाश ही होता है।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में द्रौपदी के अनुतापपूर्ण वचन विषयक सत्तईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. क्षरते इति क्षत्रम् -जो दुष्टों का नाश करता है, वह क्षत्रिय है।

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