द्विसप्तत्यधिकद्विशततम (272) अध्याय: वन पर्व (जयद्रथविमोक्षण पर्व )
महाभारत: वन पर्व: द्विसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीम और अर्जुन दोनों भाइयों को अपने वध के लिये तुले हुए देख जयद्रथ बहुत दु:खी हुआ और घबराहट छोड़कर प्राण बचाने की इच्छा से तुरंत तीव्र गति से भागने लगा। उसे भागता देख अमर्ष में भरे हुए महाबली भीम भी रथ से उतर गये और बड़े वेग से दौड़कर उन्होंने उसके केश पकड़ लिये। तत्पशचात् भीम ने उसे ऊपर उठाकर धरती पर पटक दिया और उसे रौंदने लगे। फिर उन्होंने राजा जयद्रथ को पकड़कर उसे कई थप्पड़ लगाये। इतनी मार खाकर भी वह अभी जीवित ही था और उठने की इच्छा कर रहा था। इसी समय महाबाहु भीमसेन ने उसके मस्तक पर एक लात मारी। इससे वह रोने चिल्लाने लगा, तो भी भीमसेन ने उसे गिराकर उसके शरीर पर अपने दोनों घुटने रख दिये और उसे घूसों से मारने लगे। इस प्रकार बड़े जोर की मार पड़ने से पीड़ा के मारे राजा जयद्रथ मूर्च्छित हो गया। इतने पर भी भीमसेन का क्रोध कम नहीं हुआ। यह देख अर्जुन ने उन्हें रोका और कहा- 'कुरुनन्दन! दु:शला के वैधव्य का खयाल करके महाराज ने जो आज्ञा दी थी, उसका भी तो विचार कीजिये’। भीमसेन ने कहा- 'इस नराधम ने क्लेश पाने के अयोग्य द्रौपदी को कष्ट पहुँचाया है; अत: अब मेरे हाथ से इस पापचारी जयद्रथ का जीवित रहना ठीक नहीं है। परंतु मैं क्या कर सकता हूँ? राजा युधिष्ठिर सदा दयालु ही बने रहते हैं और तुम भी अपनी बालबुद्धि के कारण मेरे ऐसे कामों में सदा बाधा पहुँचाया करते हो।' ऐसा कहकर भीम ने जयद्रथ के लम्बे-लम्बे बालों को अर्द्धचन्द्राकार बाण से मूँढ़कर पाँच चोटियाँ रख दीं। उस समय वह भय के मारे कुछ भी बोल नहीं पाता था। तदनन्तर कटुवचनों से सिन्धुराज का तिरस्कार करते हुए भीम ने कहा- ‘अरे मूढ़! यदि तू जीवित रहना चाहता है, तो जीवन रक्षा का हेतुभूत मेरा यह वचन सुन। तू राजाओं की सभा-समितियों में जाकर सदा अपने को (महाराज युधिष्ठिर) का दास बताया कर यह शर्त स्वीकार हो, तो तुझे जीवन-दान दे सकता हूँ। युद्ध में विजयी पुरुष की ओर से हारे हुए के लिये ऐसा ही विधान है’। उस समय सिन्धुराज जयद्रथ धरती पर घसीटा जा रहा था। उसने उपर्युक्त शर्त स्वीकार कर ली और युद्ध में शोभा पाने वाले पुरुषसिंह भीमसेन से अपनी स्वीकृति स्पष्ट बता दी। तदनन्तर वह उठने की चेष्टा करने लगा। तब कुन्तीकुमार वृकोदर ने उसे बाँधकर रथ पर डाल दिया। वह बेचारा धूल से लथपथ और अचेत हो रहा था। उसे रथ पर चढ़ाकर आगे-आगे भीम चले और पीछे-पीछे अर्जुन। आश्रम पर आकर भीमसेन वहाँ मध्य भाग में बैठे हुए राजा युधिष्ठिर के पास गये। भीम ने उसी अवस्था में जयद्रथ को महाराज के सामने उपस्थित किया। उसे देखकर राजा युधिष्ठिर जोर-जोर से हँसने लगे और बोले- ‘अब इसे छोड़ दो’। तब भीमसेन ने भी राजा से कहा- ‘आप द्रौपदी को यह सूचित कर दीजिये कि यह पापात्मा जयद्रथ पाण्डवों का दास हो चुका है।’ तब बड़े भाई युधिष्ठिर ने प्रेमपूर्वक भीमसेन से कहा- ‘यदि तुम मेरी बात मानते हो, तो इस पापचारी को छोड़ दो’। उस समय द्रौपदी ने भी युधिष्ठिर की ओर देखकर भीमसेन से कहा- ‘आपने इसका सिर मूँड़कर पाँच चोटियाँ रख दी हैं तथा यह महाराज का दास हो गया है; अत: अब इसे छोड़ दीजिये’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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