महाभारत वन पर्व अध्याय 264 श्लोक 1-17

चतु:षटयधिकद्विशततम (264) अध्‍याय: वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व )

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महाभारत: वन पर्व: चतु:षटयधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


जयद्रथ का द्रौपदी को देखकर मोहित होना और उसके पास कोटिकास्य को भेजना

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! काम्यकवन में नाना प्रकार के वन्‍य पशु रहते थे। वहाँ भरतकुलभूषण महारथी पाण्‍डव सब ओर घूमते हुए देवताओं के समान विहार करते थे। वे चारों ओर घूम-घूमकर नाना प्रकार के वन्‍य प्रदेशों तथा ऋतुकाल के अनुसार भलीभाँति खिले हुए फूलों से सुशोभित रमणीय वनश्रेणियों की शोभा देखते थे।

शत्रुदमन जनमेजय! पाण्‍डव लोग बाघ-चीते आदि हिंसक पशुओं का शिकार किया करते थे। देवराज इन्‍द्र के समान वे उस महान वन में विचरते हुए कुछ काल तक विहार करते रहे। एक‍ दिन की बात है, शत्रुओं को सन्‍ताप देने वाले पुरुषसिहं पांचों पाण्‍डव उद्यत तपस्‍वी पुरोहित धौम्‍य तथा महर्षि तृ‍णबिन्‍दु की आज्ञा से द्रौपदी को अकेले ही आश्रम में रखकर ब्राह्मणों की रक्षा के लिये हिंसक पशुओं को मारने एक साथ चारों दिशाओं में (अलग-अलग) चले गये। उसी समय सिन्‍धु देश का महायस्‍वी राजा जयद्रथ, जो वृद्धछत्र का पुत्र था, विवाह की इच्‍छा से शाल्‍व देश की ओर जा रहा था। वह बहुमूल्‍य राजोचित ठाठ-बाट से सुसज्जित था। अनेक राजाओं के साथ यात्रा करता हुआ वह काम्‍यकवन में आ पहुँचा। वहाँ उसने पाण्‍डवों की प्‍यारी पत्‍नी यशस्विनी द्रौपदी को दूर से देखा, जो निर्जन वन में आश्रम के दरवाजे पर खड़ी थी। वह परम सुन्‍दर रूप धारण किये अपनी अनुपम कान्ति से उद्भाशित हो रही थी और जैसे विद्युत अपनी प्रभा से नीले मेघ समूह को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार वह सुन्‍दरी अपनी अंग छटा से उस वनप्रान्‍त को सब ओर से दैदीप्‍यमान कर रही थी।

जयद्रथ और उसके सभी साथियों ने उस अनिन्‍द्य सुन्‍दरी की ओर देखा और वे हाथ जोड़कर मन-ही-मन यह विचार करने लगे- ‘यह कोई अप्‍सरा है या देवकन्‍या है अथवा देवताओं की रची हुई माया है?’ निर्दोष अंगों वाली उस सुन्‍दरी को देखकर वृद्धक्षत्रकुमार सिन्‍धुराज जयद्रथ चकित रह गया। उसके मन में दूषित भावना का उदय हुआ। उसने काममोहित होकर कोटिकास्‍य से कहा- ’कोटिक! जरा जाकर पता तो लगाओ, यह सर्वांगसुन्‍दरी किसकी स्‍त्री है? अथवा यह मनुष्‍य जाति की स्‍त्री है भी या नहीं? इस अत्‍यन्‍त सुन्‍दरी रमणी को पाकर मुझे और किसी से विवाह करने की आवश्‍यकता ही नही रह जायेगी। इसी को लेकर मैं अपने घर लौट जाऊंगा। सौम्‍य! जाओ, पता लगाओ, यह किसकी स्‍त्री है और कहां से इस वन में आयी है? यह सुन्‍दर भौहों वाली युवती कांटों से भरे हुए इस जंगल में किसलिये आयी है? क्‍या यह मनोहर कटि प्रदेश वाली विश्‍व सुन्‍दरी मुझे अंगीकार करेगी? इसके नेत्र कितने विशाल हैं, दांत कैसे सुन्‍दर हैं और शरीर का मध्य भाग कितना सूक्ष्‍म है। यदि मैं इस सुन्‍दरी को पा जाऊं तो कृतार्थ हो जाऊंगा। कोटिक! जाओ और पता लगाओ कि इसका पति कौन है?’

जयद्रथ का यह वचन सुनकर कुण्‍डलमण्डित कोटिकास्‍य रथ से उतर पड़ा और जैसे गीदड़ बाघ की स्‍त्री से बात करे, उसी प्रकार उसने द्रौपदी के पास जाकर पूछा।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत द्रौपदीहरणपर्व में जयद्रथ का आगमनविषयक दो सौ चौसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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