महाभारत वन पर्व अध्याय 260 श्लोक 1-19

षष्‍टयधिकद्विशततम (260) अध्‍याय: वन पर्व ( व्रीहिद्रौणिक पर्व )

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महाभारत: वन पर्व: षष्‍टयधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा तथा मुद्गल का देवदूत से कुछ प्रश्‍न करना

युधिष्ठिरने पूछा– भगवन्! महात्‍मा मुद्गल ने एक द्रोण धान का दान कैसे और किस विधि से किया था? तथा वह दान किसको दिया गया था? यह सब मुझे बताइये। मनुष्‍यों के धर्म को प्रत्‍यक्ष देखने और जानने वाले भगवान् जिसके कर्मों से सन्‍तुष्ट होते हैं, उसी श्रेष्‍ठ धर्मात्‍मा पुरुष का जन्‍म सफल है, ऐसा मैं मानता हूँ।

व्‍यास जी बोले- राजन्! कुरुक्षेत्र में मुद्गल नामक एक ऋषि रहते थे। वे बड़े धर्मात्‍मा और जितेन्द्रिय थे। शिल[1] तथा उच्‍छवृत्ति[2] से ही वे जीविका चलाते थे तथा सदा सत्‍य बोलते और किसी की भी निन्‍दा नहीं करते थे। उन्‍होंने अतिथियों की सेवा का व्रत ले रक्‍खा था। वे बड़े कर्मनिष्‍ठ और तपस्‍वी थे तथा कपोती वृत्ति का आश्रय ले आवश्‍यकता के अनुरूप थोड़े से ही अन्‍न का संग्रह करते थे। वे मुनि स्‍त्री और पुत्र के साथ रहकर पंन्‍द्रह दिन में जैसे कबूतर दाने चुगता है, उसी प्रकार चुनकर एक द्रोण धान का संग्रह कर पाते थे और उसके द्वारा इष्‍टीकृत नामक यज्ञ का अनुष्‍ठान करते थे।

इस प्रकार परिवार सहित उन्‍हें पंन्‍द्रह दिन पर भोजन प्राप्‍त होता था। उनके मन में किसी के प्रति ईर्ष्‍या का भाव नहीं था। वे प्रत्‍येक पक्ष में दर्श एवं पौर्णमास यज्ञ करते हुए देवताओं और अतिथियों को उनका भाग अर्पित करके शेष अन्‍न से जीवन-यापन करते थे। महाराज! प्रत्‍येक पर्व पर तीनों लोकों के स्‍वामी साक्षात् इन्द्र देवताओं सहित पधार कर उनके यज्ञ में भाग ग्रहण करते थे। मुद्गल ऋषि मुनि व़ृत्ति से रहते हुए पूर्वकालोचित कर्म-दर्श और पौर्णमास यज्ञ करके हर्षोल्‍लासपूर्ण हृदय से अतिथियों को भोजन देते थे। ईर्ष्‍या से रहित महात्‍मा मुद्गल एक द्रोण धान से तैयार किये हुए अन्‍न में से जब-जब दान करते थे, तब-तब देने से बचा हुआ अन्‍न मुद्गल के द्वारा दूसरे अतिथियों का दर्शन करने से बढ़ जाया करता था। इस प्रकार उसमें सैकड़ों मनीषी ब्राह्मण एक साथ भोजन कर लेते थे। मुद्गल मुनि के विशुद्ध त्‍याग के प्रभाव से वह अन्‍न निश्‍चय ही बढ़ जाता था।

राजन्! एक दिन दिगम्‍बर वेष में भ्रमण करने वाले महर्षि दुर्वासा ने उत्‍तम व्रत का पालन करने वाले धर्मिष्‍ठ महात्‍मा मुद्गल का नाम सुना। उनके व्रत की ख्‍याति सुनकर वे वहाँ आ पहुँचे। पाण्‍डुनन्‍दन! दुर्वासा मुनि पागलों की तरह अटपटा वेष धारण किये, मूंछ मुड़ाये और नाना प्रकार के कटु वचन बोलते हुए उस आश्रम में पधारे। ब्रह्मर्षि मुद्गल के पास पहुँचकर मुनिश्रेष्‍ठ दुर्वासा ने कहा- ‘विप्रवर! तुम्‍हें यह मालूम होना चाहिये कि मैं भोजन की इच्‍छा से यहाँ आया हूँ’। मुद्गल ने उनसे कहा- ‘महर्षे! आपका स्‍वागत है', ऐसा कहकर उन्‍होंने पाद्य, उत्‍तम अर्घ्‍य तथा आचमनीय आदि पूजन की सामग्री भेंट की। तत्‍पश्‍चात् उन व्रतधारी अतिथिसेवी महर्षि मुद्गल ने बड़ी श्रद्धा के साथ उन्‍मत्‍त वेशधारी भूखे तपस्‍वी दुर्वासा को भोजन समर्पित किया। वह अन्‍न बड़ा स्‍वादिष्‍ट था। वे उन्‍मत मुनि भूखे तो थे ही, परोसी इई सारी रसोई खा गये। तब महर्षि मुद्गल ने उन्‍हें और भोजन दिया। इस तरह सारा भोजन उदरस्‍थ करके दुर्वासा जी ने जूठन लेकर अपने सारे अंगों मे लपेट ली और फिर जैसे आये थे, वैसे ही चल दिये। इसी प्रकार दूसरा पर्वकाल आने पर दुर्वासा ऋषि ने पुन: आकर उच्‍छवृत्ति से जीवन निर्वाह करने वाले उन मनीषी महात्‍मा मुद्गल के यहां का सारा अन्‍न खा लिया। मुनि निराहार रहकर पुन: अन्‍न के दाने बीनने लगे। भूख का कष्‍ट उनके मन में विकार उत्‍पन्न करने में समर्थ न हो सका।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुछ विद्वानों के मत से सोलह सेर का होता है।
  2. 'उञ्छ' कणश आदानं कणिशाद्यर्जनं शिलम्‌।' इस कोषवाक्य के अनुसार बाजार उठ जाने पर या खेत काटने पर वहाँ बिखरे हुए अन्न के दाने बीनना 'उञ्छ' कहलाता है और खेत कट जाने पर वहाँ गिरी हुई गेहूँ-धान आदि की बालें बीनना 'शिल' कहा गया है।

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