विंशत्यधिकद्विशततम (220) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: विंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! कश्यपपुत्र काश्यप, वसिष्ठपुत्र वासिष्ठ, प्राणपुत्र प्राणक, अंगिरा के पुत्र च्यवन तथा त्रिवर्चा- ये पांच अग्नि हैं। इन्होंने पुत्र की प्राप्ति के लिये बहुत वर्षों तक तीव्र तपस्या की। उनकी तपस्या का उद्देश्य यह था कि हम ब्रह्मा जी के समान यशस्वी और धर्मिष्ठ पुत्र प्राप्त करें। पूर्वोक्त पांच अग्निस्वरूप ऋषियों ने महाव्याहृतिसंज्ञक पांच मन्त्रों द्वारा[1] परमात्मा का ध्यान किया, तब उनके समक्ष अत्यन्त तेजोमय, पांच वर्णों से विभूषित एक पुरुष प्रकट हुआ, जो ज्वालाओं से प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित होता था। वह सम्पूर्ण जगत की सृष्टि करने में समर्थ था। उसका मस्तक प्रज्वलित अग्नि के समान जगमगा रहा था, दोनों भुजाएं प्रभाकर की प्रभा के समान थी, दोनों आंखें तथा त्वचा–सुवर्ण के समान देदीप्यमान हो रही थीं और उस पुरुष की पिण्डलियां काले रंग की दिखायी देती थीं। उपर्युक्त पांच मुनिजनों ने अपनी तपस्या के प्रभाव से उस पांच वर्ण वाले पुरुष को प्रकट किया था, इसलिये उस देवोपम पुरुष का नाम 'पांचजन्य' हो गया। वह उन पांचों ऋषियों के वंश का प्रवर्तक हुआ। फिर महातपस्वी पांचजन्य ने अपने पितरों का वंश चलाने के लिये दस हजार वर्षों तक घोर तपस्या करके भयंकर दक्षिणाग्नि को उत्पन्न किया। उन्होंने मस्तक से बृहत तथा मुख से रथन्तर साम को प्रकट किया। ये दोनों वेगपूर्वक आयु आदि को हर लेते हैं, इसलिये 'तरसाहर' कहलाते हैं। फिर उन्होंने नाभि से रुद्र को, बल से इन्द्र का तथा प्राण से वायु और अग्नि को उत्पन्न किया। दोनों भुजाओं से प्राकृत और वैकृत भेद वाले दोनों अनुदात्तों को मन और ज्ञानेनिद्रयों के समस्त (छहों) देवताओं को तथा पांच महाभूतों को उत्पन्न किया। इन सबकी सृष्टि करने के पश्चात उन्होंने पांचों पितरों के लिये पांच पुत्र और उत्पन्न किये। जिनके नाम इस प्रकार हैं- वासिष्ठ बृहद्रथ के अंश से प्रणिधि, काश्यप के अंश से महत्तर, आंगिरस च्यवन के अंश से भानु तथा वर्च के अंश से सौभर नामक पुत्र की उत्पति हुई। प्राण के अंश से अनुदात्त की उत्पति हुई। इस प्रकार पचीस पुत्रों के नाम बताये गये। तत्पचात ‘तप’ नामधारी 'पांचजन्य ने यज्ञ में विघ्न डालने वाले अन्य पंद्रह उत्तर देवों (विनायकों) की सृष्टि की। उनका विवरण इस प्रकार है- सुभीम, अतिभीम, भीम, भीमबल और अबल -इन पांच विनायकों की उत्पति उन्होंने पहले की, जो देवताओं के यज्ञ का विनाश करने वाले हैं। इनके बाद पांचजन्य ने सुमित्र, मित्रवान, मित्रज्ञ, मित्रवर्धन और मित्रधर्मा-इन पांच देवरूपी विनायकों को उत्पन्न किया। तदनन्तर पांचजन्य ने सुरप्रवीर, वीर, सुरेश, सुवर्चा तथा सुरनिहन्ता इन पांचों को प्रकट किया। इस प्रकार ये पंद्रह देवोपम प्रभावशाली विनायक पृथक-पृथक पांच-पांच व्यक्तियों के तीन दलों में विभक्त हैं। इस पृथ्वी पर ही रहकर स्वर्गलोक से भी यज्ञकर्ता पुरुषों की यज्ञ-सामग्री का अपहरण कर लेते हैं। ये विनायकगण अग्नियों के लिये अभीष्ट महान हविष्य का अपहरण तो करते ही हैं, उसे नष्ट भी कर डालते हैं। अग्निगणों के साथ लाग-डांट रखने के कारण ही ये हविष्य का अपहरण और विध्वंस करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भू:, भुव:, स्व:, मह:, जन: - ये पाँच महाव्याहृतियाँ हैं। ध्यान के लिए मंत्रप्रयोग इस प्रकार है- 'ओम भूरन्नमग्नये पृथिव्यै स्वाहा' इत्यादि।
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज