महाभारत वन पर्व अध्याय 197 श्लोक 1-12

सप्‍तवत्‍यधिकशततम (197) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

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महाभारत: वन पर्व: सप्‍तवत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


इन्‍द्र और अग्नि द्वारा शिबि की परीक्षा

मार्कण्‍डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! एक समय देवताओं में परस्‍पर यह बातचीत हुई कि ‘पृथ्‍वी पर चलकर हम उशीनर के पुत्र राजा शिबि की श्रेष्‍ठता की परीक्षा करें।' 'ऐसा ही हो’ यह कहकर अग्नि और इन्द्र वहाँ जाने के लिये उद्यत हुए। अग्नि देव कबूतर का रूप धारण करके मानो अपने प्राण बचाने के लिये राजा के पास भागते हुए गये और इन्‍द्र ने बाज पक्षी का रूप धारण कर मांस के लिये उस कबूतर का पीछा किया। राजा शिबि अपने दिव्‍य सिंहासन पर बैठे हुए थे। कबूतर उनकी गोद में जा गिरा। यह देखकर पुरोहित ने राजा से कहा- ‘महाराज! यह कबूतर बाज के डर से अपने प्राणों की रक्षा के लिये आपकी शरण में आया है। किसी तरह प्राण बच जायें-यही इसका प्रयोजन है। परंतु विद्वान् पुरुष कहते हैं कि ‘इस तरह कबूतर का आकर गिरना भयंकर अनिष्‍ट का सूचक है।’ आपकी मृत्‍यु निकट जान पड़ती है; अत: आपको इस उत्‍पात की शान्ति करनी चाहिये। आप धन दान करें’।

तदनन्‍तर कबूतर ने राजा से कहा- ‘महाराज! मैं बाज के डर से प्राण बचाने के लिये प्राणार्थी होकर आपकी शरण में आया हूँ। मैं वास्‍तव में कबूतर नहीं, ऋषि हूँ। मैंने स्‍वेच्‍छा से पूर्व शरीर से यह शरीर बदल लिया है। प्राणरक्षक होने के कारण आप ही मेरे प्राण हैं। मैं आपकी शरण में हूं, मुझे बचाइये। मुझे ब्रह्मचारी समझिये। मैंने वेदों का स्‍वाध्‍याय करते हुए अपने शरीर को दुर्बल किया है। मैं तपस्‍वी और जितेन्द्रिय हूँ। आचार्य के प्रतिकूल कभी कोई बात नहीं करता। इस प्रकार मुझे योगयुक्त और निष्‍पाप जानिये। मैं वेदों का प्रवचन और छन्‍दों का संग्रह करता हूँ। मैंने सम्‍पूर्ण वेदों के एक-एक अक्षर का अध्‍ययन किया है। मैं श्रोत्रिय विद्वान हूँ। मुझ जैसे व्‍यक्ति को किसी भूखे प्राणी की भूख बुझाने के लिये उसके हवाले कर देना उत्तम दान नहीं है। अत: मुझे बाज को न सौंपिये। मैं कबूतर नहीं हूं’।

तदनन्‍तर बाज ने राजा से कहा- ‘महाराज! प्राय: सभी जीवों को बारी-बारी से विभिन्न योनियों में जन्‍म लेकर रहना पड़ता है। मालूम होता है, आप इस सृष्टि परम्‍परा में पहले कभी इस कबूतर से जन्‍म ग्रहण कर चुके हैं; तभी तो इसे अपने आश्रय में ले रहे हैं। राजन्! मैं आग्रह पूर्वक कहता हूं, आप इस कबूतर को लेकर मेरे भोजन के कार्य में विघ्न न डालें’।

राजा बोले- अहो! आज से पहले किसने कभी भी किसी पक्षी के मुख से ऐसी उत्तम संस्‍कृत भाषा का उच्‍चारण देखा या सुना है, जैसी कि ये कबूतर और बाज बोल रहे हैं। किस प्रकार इन दोनों का स्‍वरूप जानकर इनके प्रति न्‍यायोचित बर्ताव किया जा सकता है। जो राजा अपनी शरण में आये हुए भयभीत प्राणी को उसके शत्रु के हाथ में दे देता है, उसके देश में समय पर वर्षा नहीं होती। उसके बोये हुए बीज भी समय पर नहीं उगते हैं। वह कभी संकट के समय जब अपनी रक्षा चाहता है, तब उसे कोई रक्षक नहीं मिलता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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