महाभारत वन पर्व अध्याय 179 श्लोक 1-20

एकोनाशीत्यधिकशततम (179) अध्‍याय: वन पर्व (अजगर पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोनाशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


भीमसेन ओर सर्परूपधारी नहुष की बातचीत, भीमसेन की चिन्ता तथा युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार सर्प के वश में पड़े हुए वे तेजस्वी भीमसेन उस अजगर की अत्यन्त अद्भुत शक्ति के विषय में विचार करने लग गये। फिर उन्होंने उस महान् सर्प से कहा- 'भुजंगप्रवर! आप स्वेच्छापूर्वक बताइये। आप कौन हैं? और मुझे पकड़कर क्या करेंगे? मैं धर्मराज युधिष्ठिर का छोटा भाई पाण्डुपुत्र भीमसेन हूँ। मुझमें दस हजार हाथियों का बल है, फिर भी न जाने कैसे आपने मुझे अपने वश में कर लिया? मेरे सामने सैकड़ों केसरी, सिंह, व्याघ्र, महिष और गजराज आये, किंतु मैंने सबको युद्ध में मार गिराया। पन्नगश्रेष्ठ! राक्षस, पिशाच और महाबली नाग भी मेरी (इन) भुजाओं का वेग नहीं सह सकते थे। परंतु छूटने के लिये मेरे उद्योग करने पर भी आपने मुझे वश में कर लिया, इसका क्या कारण है? क्या आप में किसी विद्या का बल है अथवा आपको कोई अद्भुत वरदान मिला है? नागराज! आज मेरी बुद्धि में यही सिद्धांत स्थिर हो रहा है कि मनुष्यों का पराक्रम झूठा है। जैसा कि इस समय आपने मेरे इस महान् बल को कुण्ठित कर दिया है'।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसी बातें करने वाले वीरवर भीमसेन को, जो अनायास ही महान् पराक्रम कर दिखाने वाले थे, उस अजगर ने अपने विशाल शरीर से जकड़कर चारों ओर से लपेट लिया। तब इस प्रकार महाबाहु भीमसेन को अपने वश में करके उस भुजंगम ने उनकी दोनों मोटी-मोटी भुजाओं को छोड़ दिया और इस प्रकार कहा- 'महाबाहो! मैं दीर्घकाल से भूखा बैठा था, आज सौभाग्यवश देवताओं ने तुम्हें ही मेरे लिये भोजन के रूप में भेज दिया है। सभी देहधारियों को अपने-अपने प्राण प्रिय होते हैं। शत्रुदमन! जिस प्रकार मुझे यह सर्प का शरीर प्राप्त हुआ है, वह आज अवश्य तुमसे बतलाना है। सज्जनशिरोमणे! तुम ध्यान देकर सुनो।

मैं मनीषी माहत्माओं के कोप से इस दुर्दशा को प्राप्त हुआ हूँ और इस शाप के निवारण की प्रतीक्षा करते हुए यहां रहता हूँ। शाप का क्या कारण है? यह सब तुमसे कहता हूं, सुनो। मैं राजर्षि नहुष हूं, अवश्य ही यह मेरा नाम तुम्हारे कानों में पड़ा होगा। मैं तुम्हारे पूर्वजों का भी पूर्वज हूँ। महाराज आयु का वंशप्रवर्तक पुत्र हूँ। मैं ब्राह्मणों का अनादर करके महर्षि अगस्त्य के शाप से इस अवस्था को प्राप्त हुआ हूँ। मेरे इस दुर्भाग्य को अपनी आंखों देख लो। तुम यद्यपि अवध्य हो; क्योंकि मेरे ही वंशज हो। देखने में अत्यन्त प्रिय लगते हो तथापि आज तुम्हें अपना आहार बनाऊँगा। देखो, विधाता का कैसा विधान है? नरश्रेष्ठ! दिन के छठे भाग में कोई भैंसा अथवा हाथी ही क्यों न हो, मेरी पकड़ में आ जाने पर किसी तरह छूट नहीं सकता।

कौरवश्रेष्ठ! तुम तिर्यग योनि में पड़े हुए किसी साधारण सर्प की पकड़ में नहीं आये हो। किंतु मुझे ऐसा ही वरदान मिला है (इसीलिये मैं तुम्हें पकड़ सका हूँ)। जब मैं इन्द्र के सिंहासन से भ्रष्ट हो शीघ्रतापूर्वक श्रेष्ठ विमान से नीचे गिरने लगा, उस समय मैंने मुनिश्रेष्ठ भगवान् अगस्त्य से प्रार्थना की कि प्रभो! मेरे शाप का अन्त नियत कर दीजिये। उस समय उन तेजस्वी महर्षि ने दया से द्रवित होकर मुझसे कहा- 'राजन्! कुछ काल के पश्चात् तुम इस शाप से मुक्त हो जाओगे'। उनके इतना कहते ही मैं पृथ्वी पर गिर पड़ा। परंतु आज भी वह पुरानी स्मरण-शक्ति मुझे छोड़ नहीं सकी है। यद्यपि यह वृत्तान्त बहुत पुराना हो चुका है तथापि जो कुछ जैसे हुआ था; वह सब मुझे ज्यों-का-त्यों स्मरण है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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