महाभारत वन पर्व अध्याय 151 श्लोक 1-19

एकपंचशदधिकशततम (151) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकपंचशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


हनुमान जी का भीमसेन को आश्वासन और विदा देकर अन्तर्धान होना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर अपनी इच्छा से बढ़ाये हुए उस विशाल शरीर का उपसंहार कर वानरराज हनुमान जी ने अपनी दोनों भुजाओं द्वारा भीमसेन को हृदय से लगा लिया। भारत! भाई का आलिंगन प्राप्त होने पर भीमसेन की सारी थकावट तत्काल नष्ट हो गयी और सब कुछ उन्हें अनुकूल प्रतीत होने लगा। अत्यन्त बलशाली भीमसेन को यह अनुभव हुआ कि मेरा बल बहुत बढ़ गया। अब मेरे समान दूसरा कोई महान् नहीं है। फिर हनुमान जी ने अपने नेत्रों में आंसू भरकर सौहार्द से गद्गद वाणी द्वारा भीमसेन को सम्बोधित करके कहा- 'वीर! अब तुम अपने निवास स्थान पर जाओ। बातचीत के प्रसंग में कभी मेरा भी स्मरण करते रहना। कुरुश्रेष्ठ! मैं इस स्थान पर रहता हूं, यह बात कभी किसी से न कहना। महाबली वीर! अब कुबेर के भवन से भेजी हुई देवांगनाओं तथा गन्धर्व सुन्दरियों के यहाँ आने का समय हो गया है। भीम! तुम्हें देखकर मेरी भी आंखें सफल हो गयीं। तुम्हारे साथ मिलकर तुम्हारे मानव शरीर का स्पर्श करके मुझे उन भगवान् रामचन्द्रजी का स्मरण हो आया है, जो श्रीराम-नाम से प्रसिद्ध साक्षात् विष्णु हैं। जगत के हृदय को आनन्द प्रदान करने वाले, मिथिलेश-नन्दिनी सीता के मुखारविन्द को विकसित करने के लिये सूर्य के समान तेजस्वी तथा दशमुख रावणरूपी अन्धकार राशि को नष्ट करने के लिये साक्षात भुवन-भास्कररूप हैं। वीर कुन्तीकुमार! तुमने जो मेरा दर्शन किया है, वह व्यर्थ नहीं जाना चाहिये।

भारत! तुम मुझे अपना बड़ा भाई समझकर कोई वर मांगो। यदि तुम्हारी इच्छा हो कि मैं हस्तिनापुर में जाकर तुच्छ धृतराष्ट्र-पुत्रों को मार डालूं तो मैं यह भी कर सकता हूँ अथवा यदि तुम चाहो कि मैं पत्थरों की वर्षा से सारे नगर को रौंदकर धूल में मिला दूं अथवा दुर्योधन को बांधकर अभी तुम्हारे पास ला दूं तो यह भी कर सकता हूँ। महाबली वीर! तुम्हारी जो इच्छा हो, वही पूर्ण कर दूंगा।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! महात्मा हनुमान जी का यह वचन सुनकर भीमसेन ने हर्षोल्लासपूर्ण हृदय से हनुमान जी को इस प्रकार उत्‍तर दिया- 'वानरशिरोमणे! आपने मेरा यह सब कार्य कर दिया। आपका कल्याण हो। महाबाहो! अब आपसे मेरी इतनी ही कामना है कि आप मुझ पर प्रसन्न रहिये-मुझ पर आपकी कृपा बनी रहे। शक्तिशाली वीर! आप-जैसे नाथ संरक्षक को पाकर सब पाण्डव सनाथ हो गये। आपके ही प्रभाव से हम लोग अपने सब शत्रुओं को जीत लेंगे'।

भीमसेन के ऐसा कहने पर हनुमान जी ने उनसे कहा- 'तुम मेरे भाई और सुहृद हो, इसलिये मैं तुम्हारा प्रिय अवश्य करूंगा। महाबली वीर! जब तुम बाण और शक्ति के आघात से व्याकूल हुई शत्रुओं की सेना में घुसकर सिंहनाद करोगे, उस समय मैं अपनी गर्जना से तुम्हारे उस सिंहनाद को और बढ़ा दूंगा। उसके सिवा अर्जुन की ध्वजा पर बैठकर मैं ऐसी भीषण गर्जना करूंगा, जो शत्रुओं के प्राणों को हरने वाली होगी, जिससे तुम लोग उन्हें सुगमता से मार सकोगे।' पाण्डवों का आनन्द बढ़ाने वाले भीमसेन से ऐसा कहकर हनुमान जी ने उन्हें जाने के लिये मार्ग बता दिया और स्वयं वहीं अन्तर्धान हो गये।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमतीर्थयात्रा के प्रसंग में गन्धमादन पर्वत पर हनुमान जी और भीमसेन का संवाद विषयक एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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