महाभारत वन पर्व अध्याय 139 श्लोक 1-20

एकोनचत्‍वरि‍शदधि‍कशततम (139) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोनचत्‍वरि‍शदधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


पाण्‍डवों की उत्‍तराखण्‍ड यात्रा और लोमश द्वारा उसकी दुर्गमता का कथन

लोमश जी कहते हैं- भरतनन्‍दन युधिष्ठिर! अब तुम उशीरबीज, मैनाक, श्‍वेत और काले शैल नामक पहाड़ों को लांघकर आगे बढ़ आये। भरतश्रेष्ठ! यह देखो गंगाजी सात धाराओं से सुशोभि‍त हो रही हैं। यह रजोगुणरहि‍त पुण्‍यतीर्थ है, जहाँ सदा अग्‍नि‍देव प्रज्‍वलि‍त रहते हैं। यह अद्भुद तीर्थ कोई मनुष्‍य नहीं देख सकता, अत: तुम सब लोग एकाग्रचित्त हो जाओ। व्‍यग्रताशून्‍य हृदय से तुम इन सब तीर्थों का दर्शन कर सकोगे। यह देवताओं की क्रीड़ास्‍थली है, जो उनके चरणचि‍न्‍हों से अंकि‍त है। एकाग्रचित्त होने पर तुम्‍हें इनका दर्शन होगा।

कुन्‍तीकुमार! अब तुम कालशैल पर्वत को लांघकर आगे बढ़ आये। इसके बाद हम श्‍वेतगि‍रि (कैलाश) तथा मन्‍दराचल पर्वत में प्रवेश करेंगे, जहाँ माणि‍वर यक्ष और यक्षराज कुबेर नि‍वास करते हैं। राजन! वहाँ तीव्र चलने वाले अट्ठासी हजार गन्‍धर्व और उनसे चौगुने कि‍न्‍नर तथा यक्ष रहते हैं। उनके रूप एवं आकृति‍ अनेक प्रकार की हैं। वे भाँति‍-भाँति‍ के अस्‍त्र-शस्‍त्र धारण करते हैं और यज्ञराज माणि‍भद्र की उपासना में संलग्‍न रहते हैं। यहाँ उनकी समृद्धि‍ अति‍शय बढ़ी हुई है, तीव्र गति‍ में वे वायु की समानता करते हैं। वे चाहें तो देवराज इन्द्र को भी नि‍श्‍चय ही अपने स्‍थान से हटा सकते हैं। तात युधिष्ठिर! उन बलवान यक्ष राक्षसों से सुरक्षि‍त रहने के कारण ये पर्वत बढ़े दुर्गम हैं। अत: तुम वि‍शेष रूप से एकाग्रचित हो जाओ। कुबेर के सचि‍वगण तथा अन्‍य रौद्र और मैत्र नामक राक्षसों का हमें सामना करना पड़ेगा; अत: तुम पराक्रम के लि‍ये तैयार रहो।

राजन! उधर छ: योजन ऊँचा कैलाश पर्वत दि‍खायी देता है, जहाँ देवता आया करते हैं। भारत! उसी के नि‍कट वि‍शालापुरी (बदरीकाश्रम तीर्थ) है। कुन्‍तीनन्‍दन! कुबेर के भवन में अनेक राक्षस, यक्ष, कि‍न्‍नर, नाग, सुपर्ण तथा गन्‍धर्व नि‍वास करते हैं। महाराज कुन्‍तीनन्‍दन! तुम भीमसेन के बल और मेरी तपस्‍या से सुरक्षि‍त हो तप एवं इन्‍द्रि‍संयमपूर्वक रहते हुए आज उन तीर्थों में स्‍नान करो। राजा वरुण, युद्धवि‍जयी यमराज, गंगा-यमुना तथा यह पर्वत तुम्‍हें कल्‍याण प्रदान करें। महाद्युते! मरुद्गण, अश्‍वि‍नीकुमार, सरि‍ताएं और सरोवर भी तुम्‍हारा मंगल करें। देवताओं, असुरों तथा वसुओं से भी तुम्‍हें कल्‍याण की प्राप्‍ति‍ हो। देवि‍ गंगे! मैं इन्द्र के सुवर्णमय मेरु पर्वत से तुम्‍हारा कल-कल नाद सुन रहा हूँ। सौभाग्‍यशालि‍नी! ये राजा युधिष्ठिर अजमीढवंशी क्षत्रि‍यों के लि‍ये आदरणीय हैं। तुम पर्वतों से इनकी रक्षा कराओ। शैलपुत्रि‍! ये इन पर्वतमालाओं में प्रवेश करना चाहते हैं। तुम इन्‍हें कल्‍याण प्रदान करो।' समुद्रगामीनी गंगा नदी से ऐसा कहकर वि‍प्रवर लोमश ने कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर को यह आदेश दिया कि‍ ‘अब तुम एकाग्रचि‍त्त हो जाओ’।

युधिष्ठिर बोले- बन्‍धुओ! आज महर्षि‍ लोमश को बड़ी घबराहट हो रही है। यह एक अभूतपूर्व घटना है। अत: तुम सब लोग सावधान होकर द्रौपदी की रक्षा करो। प्रमाद न करना। लोमश जी का मत है कि‍ यह प्रदेश अत्‍यन्‍त दुर्गम है। अत: यहाँ अत्‍यन्‍त शुद्ध आचार-वि‍चार से रहो।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्‍तर राजा युधिष्ठिर महाबली भीम से इस प्रकार बोले- 'भैया भीमसेन! तुम सावधान रहकर द्रौपदी की रक्षा करो। तात! कि‍सी नि‍र्जन प्रदेश में जब कि‍ अर्जुन हमारे समीप नहीं है, भय का अवसर उपस्‍थि‍त होने पर द्रौपदी तुम्‍हारा ही आश्रय लेती है’। तत्‍पश्‍चात महात्‍मा राजा युधिष्ठिर ने नकुल-सहदेव के पास जाकर उनका मस्‍तक सूँघा और शरीर पर हाथ फैरा। फि‍र नेत्रों से आंसू बहाते हुए कहा- ‘भैया! तुम दोनों भय न करो और सावधान होकर आगे बढ़ो’।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में पाण्‍डवों का कैलाश आदि‍ पर्वतमाला में प्रवेश वि‍षयक एक सौ उन्‍तालीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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