महाभारत वन पर्व अध्याय 129 श्लोक 1-10

एकोनत्रिंशदधिकशततम (129) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


कुरुक्षेत्र के द्वारभूत प्लक्षप्रस्रवण नामक यमुनातीर्थ एवं सरस्वतीतीर्थ की महिमा

लोमश जी कहते है- युधिष्ठिर! पूर्वकाल में यहाँ साक्षात प्रजापति ने इष्‍टि‍कृत नामक सत्र का एक सहस्र वर्षों तक चालू रहने वाला अनुष्‍ठान किया था। यहीं यमुना के तट पर नाभागपुत्र अम्बरीष ने भी यज्ञ किया था और पूर्ण होने के पश्चात सदस्यों को दस पद्म मुद्राएं दान की थीं तथा यज्ञों और तपस्या द्वारा परम सिद्धि प्राप्त कर ली थी। कुन्तीनन्दन! यह नहुषकुमार ययाति का देश है, जो पुण्यकर्मा, याज्ञिक, महातेजस्वी ओर सार्वभौम सम्राट थे। वे सदा इन्द्र के साथ ईर्ष्‍या रखते थे। यहाँ यह उन्हीं की यज्ञभूमि है। देखो, यहाँ अग्नियों से युक्त नाना प्रकार की वेदियां हैं, जिनसे यह सारी भूमि व्याप्त हो रही है, मानो पृथ्वी ययाति के यज्ञ-कर्मों से आक्रान्त हो उनकी पुण्यधारा में डूबी जा रही है। यह एक पत्ते वाली शमी का अवशेष अंश है तथा यह उत्तम सरोवर है। देखो ये परशुराम जी के कुण्ड हैं और यह नारायणाश्रम है।

महाराज! योगशक्ति से सारी पृथ्वी पर विचरने वाले महातेजस्वी ऋचीकनन्दन जमदग्नि का प्रसर्पण (घूमने-फिरने का स्थान) तीर्थ है, जो रौप्या नामक नदी के समीप सुशोभित है। कुरुनन्दन! इस तीर्थ के विषय में एक परम्परा प्राप्‍त कथा को सूचित करने वाले कुछ श्लोक हैं, जिन्हें मैं पढ़ता हूं, तुम मेरे मुख से सुनो– (प्राचीन काल की बात है, कोई स्त्री अपने पुत्र के साथ इस तीर्थ में निवास करने के लिये आयी थी, उससे) एक भयंकर पिशाची ने, जिसने ओखली जैसे आभूषण पहन रखे थे, उन श्लोकों को कहा था- श्लोक (का भाव) इस प्रकार है- ‘अरी! तू युगन्धर में दही खाकर[1] अच्युत स्थल में निवास करके[2] और भूतलय में नहाकर[3] यहाँ पुत्रसहित निवास करने की अधिकारिणी कैसे हो सकती है? (अच्छा, आयी है तो एक रात रह ले), यदि एक रात यहाँ रह लेने के पश्चात दूसरी रात में भी रहेगी तो दिन में तो तेरा यह हाल है (आज दिन में तो तुमको यह कष्‍ट दिया गया है) और रात में तेरे साथ अन्यथा बर्ताव होगा (विशेष कष्‍ट दिया जायेगा)।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. युगन्धर एक पर्वत या प्रदेश का नाम है, जहाँ के लोग ऊँटनी ओर गदही तक के दूध का दही जमा लेते हैं। उस स्त्री ने कभी वहाँ जाकर दही खाया था। धर्म शास्त्र में ऊँट और खुर वाले पशुओं के दूध को मदिरा के तुल्य बताया गया है- ‘औष्ट्रमेकशफं क्षीरं सुरातुल्यम्‌।‘ इति
  2. प्राचीन काल में अच्युत स्थल नामक गांव वर्णसंकर जातीय अन्त्यजों एवं चाण्डालों का निवास स्थान था। उस स्त्री ने उस गांव मे किसी समय निवास किया था। धर्मशास्त्र के अनुसार वर्णसंकरों के संसर्ग में आने पर प्रायश्चित रूप से प्राजापत्य व्रत का अनुष्‍ठान करना चाहिये- ‘संसृज्य संकरै: सार्घ प्राजापत्यं व्रतं चरेत।‘ इति।
  3. 'भूतुल्य’ नामक गांव चोरों और डाकुओं का अड्डा था। वहाँ एक नदी थी, जिसमें मुद्रे बहाये जाते थे। उस स्त्री ने उसी दूषि‍त जल में स्नान किया था। धर्मशास्त्र के अनुसार उस गांव में रहने मात्र से प्राजापत्‍य व्रत करने की आवश्यकता है- ‘प्रोष्‍य भूत-लये विप्र: प्राजापत्यं व्रतं चरेत।’ इति। इन तीनों दोषों से युक्त होने के कारण वह स्त्री तीर्थवास की अधिकारिणी नहीं रह गयी थी।

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