महाभारत वन पर्व अध्याय 127 श्लोक 1-16

सप्‍तविंश‍त्‍यधि‍कशततम (127) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्‍तविंश‍त्‍यधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


सोमक और जन्तु का उपाख्यान

युधिष्ठिर! ने पूछा- वक्ताओं मे श्रेष्ठ महर्षे! राजा सोमक का बल-पराक्रम कैसा था? मैं उनके कर्म ओर प्रभाव का यथार्थ का वर्णन चाहता हूँ।

लोमश जी ने कहा- युधिष्ठिर! सोमक नाम से प्रसिद्ध एक धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। उनकी सौ रानियां थीं। वे सभी रूप अवस्था आदि में प्राय: एक समान थीं। परंतु दीर्घकाल तक महान प्रयन्त करते रहने पर भी वे अपनी उन रानियों के गर्भ से काई पुत्र न प्राप्त कर सके। राजा सोमक वृद्धावस्था में भी इसके लिये निरन्तर यत्नशील थे; अत: किसी समय उनकी सौ स्त्रियों में से किसी एक के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम था जन्तु। राजन! उसके जन्म लेने के पश्चात सभी माताएं काम-भोग की ओर से मुँह मोड़कर सदा उसी बच्चे के पास उसे सब ओर से घेरकर बैठी रहती थीं।

एक दिन एक चींटी ने जन्तु के कटिभाग में डंस लिया। चींटी के काटने पर उसकी पीड़ा से विकल हो जन्तु सहसा रोने लगा। इससे उसकी सब माताएं भी सहसा जन्तु के शरीर से चींटी को हटाकर अत्यन्त दु:खी हो जोर-जोर से रोने लगीं। उनके रोदन की वह सम्मिलित ध्वनि‍ बडी भयंकर प्रतीत हुई। उस समय राजा सोमक पुराहि‍त के साथ मन्‍त्रि‍यों की सभा में बैठे थे। उन्होंने अकस्मात वह‍ आर्तनाद सुना। सुनकर राजा ने ‘यह क्‍या हो गया?’ इस बात का पता लगाने के लि‍ये द्वारपाल को भेजा। द्वारपाल ने लौटकर राजकुमार से सम्‍बंध रखने वाली पूर्वोक्‍त घटना का यथावत वृत्‍तान्‍त सुनाया। तब शत्रुदमन राजा सोमक ने मन्‍त्रि‍यों सहि‍त उठकर बड़ी उतावली के साथ अन्‍त:पुर में प्रवेश कि‍या और पुत्र को आश्‍वासन दि‍या। बेटे को सान्‍त्‍वना देकर राजा अन्‍त:पुर से बाहर नि‍कले और पुराहि‍त तथा मन्‍त्रि‍यों के साथ पुन: मन्‍त्रणा गृह में जा बैठे।

उस समय सोमक ने कहा- 'इस संसार में कि‍सी पुरुष के एक ही पुत्र होना धि‍क्‍कार का वि‍षय है। एक पुत्र होने की अपेक्षा तो पुत्रहीन रह जाना ही अच्‍छा है। एक ही संतान हो तो सब प्राणी उसके लि‍ये सदा आकुल-व्‍याकुल रहते हैं, अत: एक पुत्र का होना शोक ही है। ब्रह्मन! मैंने अच्‍छी तरह जांच-बूझकर पुत्र की इच्छा से अपने योग्‍य सौ स्‍त्रि‍यों के साथ वि‍वाह कि‍या, कि‍तु उनके काई संतान नहीं हुई। यद्यपि‍ मेरी सभी रानि‍याँ संतान के लि‍ये यत्‍नशील थीं, तथापि‍ कि‍सी तरह मेरे यही एक पुत्र उत्‍पन्‍न हुआ, जि‍सका नाम जन्‍तु है। इससे बढ़कर दु:ख और क्‍या हो सकता है?। द्वि‍जश्रेष्ठ! मेरी तथा इन रानि‍यों की अधि‍क अवस्‍था बीत गयी, कि‍तु अभी तक मेरे और उन पत्‍नि‍यों के प्राण केवल इस एक पुत्र में ही बसते हैं। क्‍या कोई ऐसा उपयोगी कर्म हो सकता है, जि‍ससे मेरे सौ पुत्र हो जायें। भले ही वह कर्म महान हो, लघु हो अथवा अत्‍यनत दुष्‍कर हो।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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