महाभारत वन पर्व अध्याय 124 श्लोक 1-17

चतुर्वि‍‍शत्‍यधि‍कशततम (124) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चतुर्वि‍‍शत्‍यधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


शर्याति के यज्ञ में च्‍यवन का इन्‍द्र पर कोप करके वज्र को स्‍तम्‍भि‍त करना और उसे मारने के लि‍ये मदासुर को उत्‍पन्‍न करना

लोमश जी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्‍तर राजा शर्याति‍ ने सुना कि‍ महर्षि‍ च्यवन युवावस्‍था को प्राप्‍त हो गये; इस समाचार से उन्‍हें बड़ी प्रसन्‍नता हुई। वे सेना के साथ महर्षि‍ च्‍यवन के आश्रम पर आये। च्यवन और सुकन्या को देवकुमारों के समान सुखी देखकर पत्‍नी सहि‍त शर्याति‍ को महान हर्ष हुआ, मानो उन्‍हें सम्‍पूर्ण पृथ्‍वी का राज्‍य मि‍ल गया हो। च्‍यवन ऋषि‍ ने रानि‍यों सहि‍त राजा का बड़ा आदर सत्‍कार कि‍या और उनके पास बैठकर मन को प्रि‍य लगने वाली कल्‍याणमयी कथाएं सुनायीं।

युधिष्ठिर! तत्‍पश्‍चात भृगुनन्‍दन च्‍यवन ने उन्‍हें सान्‍त्‍वना देते हुए कहा- ‘राजन! आप से यज्ञ कराऊँगा। आप सामग्री जुटाइये’। महाराज! यह सुनकर राजा शर्याति‍ बड़े प्रसन्‍न हुए और उन्होंने च्‍यवन मुनि‍ के उस वचन की बड़ी सराहना की। तदनन्‍तर यज्ञ के लि‍ये उपयोगी शुभ दि‍न आने पर शर्याति‍ ने एक उत्‍तम यज्ञमण्‍डप तैयार करवाया, जो सम्‍पूर्ण मनोवांछि‍त समृद्धि‍यों से सम्‍पन्‍न था। राजन! भृगुनन्‍दन च्‍यवन ने उस यज्ञमण्‍डप में राजा से यज्ञ करवाया। उस यज्ञ में जो अद्भुत बातें हुई थीं, उन्‍हें मुझसे सुनो।

महर्षि‍ च्यवन ने उस समय दोनों अश्विनीकुमारों को देने के लि‍ये सोमरस का भाग हाथ में लि‍या। उन दोनों के लि‍ये सोम का भाग ग्रहण करते समय इन्द्र ने मुनि‍ को मना कि‍या। इन्‍द्र बोले– 'मुने! मेरा यह सि‍द्धान्‍त है कि‍ ये दोनों अश्विनीकुमार यज्ञ में सोमपान के अधि‍कारी नहीं हैं; क्‍योंकि‍ ये द्युलोक नि‍वासी देवताओं के वैद्य हैं और उस वैद्यवृत्‍ति‍ के कारण ही इन्‍हें यज्ञ में सोमपान का अधि‍कार नहीं रह गया है।'

च्‍यवन ने कहा- 'मघवन! ये दोनों अश्विनीकुमार बड़े उत्‍साही और बुद्धि‍मान हैं। रूप सम्‍पति‍ में भी सबसे बढ़-चढ़कर हैं। इन्‍होंने ही मुझे देवताओं के समान दि‍व्‍य रूप से युक्‍त और अजर बनाया है। देवराज! फि‍र तुम्हारे या अन्‍य देवताओं के सि‍वा इन्‍हें यज्ञ में सेामरस का भाग पाने को अधि‍कार क्‍यों नहीं है। पुरंदर! इन अश्विनीकुमारों को भी देवता ही समझो।'

इन्‍द्र बोले– 'ये दोनों चि‍कि‍त्‍सा कार्य करते हैं और मनमाना रूप धारण करके मृत्‍युलोक में भी वि‍चरते रहते हैं, फि‍र इन्‍हें इस यज्ञ में सोमपान का अधि‍कार कैसे प्राप्‍त हो सकता है।'

लोमश जी कहते हैं– युधिष्ठिर! जब देवराज इन्द्र बार-बार यही बात दुहराने लगे, तब भृगुनन्‍दन च्यवन ने उनकी अवहेलना करके अश्विनीकुमारों को देने के लि‍ये सोमरस का भाग ग्रहण कि‍या। उस समय देववैद्यों के लि‍ये उत्‍तम सोमरस ग्रहण करते देख इन्‍द्र ने च्‍यवन मुनि‍ से इस प्रकार कहा- ‘ब्रह्मन! तुम इन दोनों के लि‍ये सोमरस ग्रहण करोगे तो मैं तुम पर अपना परम उत्‍तम भयंकर वज्र छोड़ दूंगा’। उनके ऐसा कहने पर च्‍यवन मुनि‍ ने मुसकराते हुए इन्‍द्र की ओर देखकर अश्विनीकुमारों के लि‍ये वि‍धि‍पूर्वक उत्‍तम सोमरस हाथ में लि‍या। तब शचीपति‍ इन्‍द्र उनके ऊपर भयंकर वज्र छोड़ने लगे, परंतु वे जैसे ही प्रहार करने लगे, भृगुनन्‍दन च्‍यवन ने उनकी भुजा को स्‍तम्‍भि‍त कर दि‍या।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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