महाभारत वन पर्व अध्याय 113 श्लोक 1-11

त्रयोदशाधि‍कशततम (113) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रयोदशाधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


ऋष्यशृंग का अंगराज लोमपाद के यहाँ जाना, राजा का उन्‍हें अपनी कन्‍या देना, राजा द्वारा वि‍भाण्‍डक मुनि‍ का सत्‍कार तथा उन पर मुनि‍ का प्रसन्‍न होना

वि‍भाण्‍डक ने कहा- बेटा! इस प्रकार अद्भुत दर्शनीय रूप धारण करके तो राक्षस ही इस वन में वि‍चरा करते हैं। ये अनुपम पराक्रमी और मनोहर रूप धारण करने वाले होते हैं तथा ऋषि‍-मुनि‍यों की तपस्या में सदा वि‍घ्‍न डालने का ही उपाय सोचते रहते हैं। तात! वे मानोहररूपी राक्षस नाना प्रकार के उपायों द्वारा मुनि‍ लोगों को प्रलोभन में डालते रहते हैं। फि‍र वे ही भयानक रूप धारण करके वन में नि‍वास करने वाले मुनि‍यों को आनन्‍दमय लोकों से नीचे गि‍रा देते हैं। अत: जो साधू पुरुषों को मि‍लने वाले पुण्‍य लोकों को पाना चाहते हैं, वह मुनि‍ मन को संयम में रखकर उन राक्षसों का (जो मोहक रूप बनाकर धोखा देने के लि‍ये आते हैं) कि‍सी प्रकार सेवन न करे। वे पापाचारी नि‍शाचर तपस्‍वी मुनि‍यों के तप में वि‍घ्‍न डालकर प्रसन्‍न होते हैं, अत: तपस्‍वी को चाहि‍ये कि वह उनकी ओर आंख उठाकर देखे ही नहीं। वत्‍स! जि‍से तुम जल समझते थे, वह मद्य था। वह पापजनक और अपेय है, उसे कभी नहीं पीना चाहि‍ये। दुष्‍ट पुरुष उसका उपयोग करते हैं तथा ये वि‍चि‍त्र, उज्ज्वल और सुगन्‍धि‍त पुष्‍प मालायें भी मुनि‍यों के योग्‍य नहीं बतायी गयी हैं। ऐसी वस्‍तुएं लाने वाले राक्षस ही हैं।‘

ऐसा कहकर वि‍भाण्‍डक मुनि‍ ने पुत्र को उससे मि‍लने-जुलने से मना कर दि‍या और स्‍वयं उस वेश्‍या की खोज करने लगे। तीन दि‍नों तक ढूँढने पर भी जब वे उसका पता न लगा सके, तब आश्रम पर लौट आये। जब काश्‍यपनन्‍दन वि‍भाण्‍डक मुनि‍ आश्रम से पुन: वि‍धि के अनुसार फल लाने के लि‍ए वन में गये, तब वह वेश्‍या ऋष्‍यशृंग मुनि‍ को लुभाने के लि‍ए फि‍र उनके आश्रम पर आयी। उसे देखते ही ऋष्‍यशृंग मुनि‍ हर्ष-वि‍भोर हो उठे और घबराकर तुरंत उसके पास दौड़ गये। नि‍कट जाकर उन्‍होंने कहा- ‘ब्रह्मन! मेरे पि‍ताजी जब तक लौटकर नहीं आते, तभी तक मैं और आप-दोनों आपके आश्रम की ओर चल दें।'

राजन! तदनन्‍तर वि‍भाण्‍डक मुनि‍ के इकलौते पुत्र को युक्‍ति‍ से नाव में ले जाकर वेश्‍या ने नाव खोल दी। फि‍र सभी युवति‍यां भाँति‍-भाँति‍ के उपायों द्वारा उनका मनोरंजन करती हुईं अंगराज के समीप आयीं। नावि‍कों द्वारा संचालि‍त उस अत्‍यन्‍त उज्जवल नौका को जल से बाहर नि‍कालकर राजा ने एक स्‍थान पर स्‍थापि‍त कर दि‍या और जि‍तनी दूरी से वह नौकागत आश्रम दि‍खायी देता था, उतनी दूरी के वि‍स्तृत मैदान में उन्‍होंने ऋष्‍यशृंग मुनि‍ के आश्रम जैसे ही एक वि‍चि‍त्र वन का निर्माण करा दि‍या, जो 'नाव्‍याश्रम’ के नाम से प्रसि‍द्ध हुआ। राजा लोमपाद ने वि‍भाण्‍डक मुनि‍ के इकलौते पुत्र को महल के भीतर रनवास में ठहरा दि‍या और देखा, सहसा उसी क्षण इन्द्रदेव ने वर्षा आरम्‍भ कर दी तथा सारा जगत जल से परि‍पूर्ण हो गया। लोमपाद की मनोकामना पूरी हुई। उन्‍होंने प्रसन्‍न होकर अपनी पुत्री शान्ता ऋष्यशृंग मुनि‍ को ब्‍याह दी और वि‍भाण्‍डक मुनि‍ के क्रोध के नि‍वारण का भी उपाय कर दि‍या। जि‍स रास्‍ते से महर्षि‍ आने वाले थे, उसमें स्‍थान-स्‍थान पर बहुत-से गाय-बैल रखवा दि‍ये और कि‍सानों द्वारा खेतों की जुताई आरम्‍भ करा दी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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