महाभारत वन पर्व अध्याय 105 श्लोक 1-20

पंचाधिकशततम (105) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: पंचाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


अगस्‍त्‍य जी के द्वारा समुद्रपान और देवताओं का कालकेय दैत्‍यों का वध करके ब्रह्माजी से समुद्र को पुन: भरने का उपाय पूछना

लोमश जी कहते हैं– राजन्! समुद्र के तट पर जाकर मित्रावरुणनन्‍दन भगवान अगस्‍त्‍य मुनि वहाँ एकत्र हुए देवताओं तथा समागत ऋर्षियों से बोले– ‘मैं लोकहित के लिये समुद्र का जल पी लेता हूँ। फिर आप लोगों को जो कार्य करना हो, उसे शीघ्र पूरा कर लें।' अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले मित्रावरुणकुमार अगस्‍त्‍य जी कुपित हो सब लागों के देखते–देखते समुद्र को पीने लगे। उन्‍हें समुद्रपान करते देख इन्द्र सहित देवता बड़े विस्म्ति हुए और स्‍तुतियों द्वारा उनका समादर करने लगे। ‘लोकभावन महर्षे! आप हमारे रक्षक तथा सम्‍पूर्ण लोकों के विधाता हैं। आपकी कृपा से अब देवताओं सहित सम्‍पूर्ण जगत विनाश को नहीं प्राप्‍त होगा’।

इस प्रकार जब देवता महात्‍मा अगस्‍त्‍य जी की प्रशंसा कर रहे थे, सब ओर गन्‍धर्वों के वाद्यों की ध्‍वनि फैल रही थी और अगस्‍त्‍य जी पर दि‍व्‍य फूलों की बौछार हो रही थी, उसी समय अगस्‍त्‍य जी ने सम्‍पूर्ण महासागर को जलशून्‍य कर दिया। उस महासमुद्र को निर्जल हुआ देख सब देवता बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्‍होंने अपने दिव्‍य एवं श्रेष्‍ठ आयुध लेकर अत्‍यन्‍त उत्‍साह से सम्‍पन्‍न हो दानवों पर आक्रमण किया। महान् बलवान् वेगशाली और महाबुद्धिमान देवता जब सिंहगर्जना करते हुए दैत्‍यों को मारने लगे, उस समय वे उन वेगवान् महामना देवताओं का वेग न सह सके। भरतनन्‍दन! देवताओं की मार पड़ने पर दानवों ने भी भयंकर गर्जना करते हुए दो घड़ी तक उनके साथ घोर युद्ध किया। उन दैत्‍यों को शुद्ध अन्‍त:करण वाले मुनियों ने अपनी तपस्‍या द्वारा पहले से ही दग्‍ध-सा कर रखा था, अत: पूरी शक्ति लगाकर अधिक से अधिक प्रयास करने पर भी देवताओं द्वारा वे मार डाले गये। सोने की मोहरों की मालाओं से भूषित तथा कुण्‍डल एवं बाजूबंदधारी दैत्‍य वहाँ मारे जाकर खिले हुए पलाश के वृक्षों की भाँति अधिक शोभा पा रहे थे।

नरश्रेष्‍ठ! मरने से बचे हुए कुछ कालकेय दैत्‍य वसुन्‍धरा देवी को विदीर्ण करके पाताल में चले गये। सब दानवों को मारा गया देख देवताओं ने नाना प्रकार के वचनों द्वारा मुनिवर अगस्‍त्‍य जी का स्‍तवन किया और यह बात कही- ‘महाभग! आपकी कृपा से समस्‍त लोकों ने महान् सुख प्राप्‍त किया है, क्‍योंकि क्रूरतापूर्ण पराक्रम दिखाने वाले कालकेय दैत्‍य आपके तेज से दग्‍ध हो गये। मुन! आपकी बांहें बड़ी हैं। आप नूतन संसार की सृष्टि करने में समर्थ हैं। अब आप समद्र को फिर भर दीजिये। आपने जो इसका जल पी लिया है, उसे फिर इसी में छोड़ दीजिये‘। उनके ऐसा कहने पर मुनिप्रवर भगवान अगस्‍त्‍य ने वहाँ एकत्र हुए इन्‍द्र आदि समस्‍त देवताओं से उस समय यों कहा- ‘देवगण! वह जल तो मैंने पचा लिया, अत: समुद्र को भरने के लिये सतत प्रयत्‍नशील रहकर आप लोग कोई दूसरा ही उपाय सोचें।' शुद्ध अन्‍त:करण वाले महर्षि का यह वचन सुनकर सब देवता बड़े विस्मित हो गये, उनके मन में विषाद छा गया। वे आपस में सलाह करके मुनिवर अगस्‍त्‍य जी को प्रणाम कर वहाँ से चल दिये। महाराज्! फिर सारी प्रजा जैसे आयी थी, वेसे ही लौट गयी। देवता लोग भगवान विष्‍णु के साथ ब्रह्माजी के पास गये। समुद्र को भरने के उद्देश्‍य से बार-बार आपस मे सलाह करके श्रीविष्‍णु सहित सब देवता ब्रह्माजी के निकट जा हाथ जोड़कर यह पूछने लगे कि ‘समुद्र को पुन: भरने के लिये क्‍या उपाय किया जाये’।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में अगस्त्योपाख्यान विषयक एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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