महाभारत वन पर्व अध्याय 102 श्लोक 1-17

द्वयधिकशततम (102) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्वयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


कालकेयों द्वारा तपस्वियों, मुनियों और ब्रह्मचारियों आदि का संहार तथा देवताओं द्वारा भगवान विष्‍णु की स्‍तुति

लोमश जी कहते हैं– राजन्! वरुण के निवास स्‍थान जलनिधि समुद्र का आश्रय लेकर कालकेय नामक दैत्‍य तीनों लोकों के विनाश कार्य में लग गये। वे सदा रात में कुपित होकर आते और आश्रमों तथा पुण्‍य स्‍थानों में जो निवास करते थे, उन मुनियों को खा जाते थे। उन दुरात्‍माओं ने वसिष्ठ के आश्रम में निवास करने वाले एक सौ अठ्ठासी ब्राह्मणों तथा नौ दूसरे तपस्वियों को अपना आहार बना लिया। च्‍यवन मुनि के पवित्र आश्रम में, जो बहुत-से द्विज निवास करते थे, जाकर उन दैत्‍यों ने फल-मूल का आहार करने वाले सौ मुनियों को भक्षण कर लिया। इस प्रकार वे रात में तपस्‍वी मुनियों का संहार करते और दिन मे समुद्र के जल में प्रवेश कर जाते थे। भरद्वाज मुनि के आश्रम में वायु और जल पीकर संयम-नियम के साथ रहने वाले बीस ब्रह्मचारियों को कालकेयों ने काल के गाल में डाल दिया।

इस तरह क्रमश: सभी आश्रमों में जाकर अपने बाहुबल के भरोसे उन्मत्त रहने वाले दानव रात में वहाँ के निवासियों को सर्वथा कष्‍ट पहुँचाया करते थे। नरश्रेष्‍ठ! कालकेय दानव काल के अधीन हो रहे थे, इसीलिये वे असंख्‍य ब्राह्मणों की हत्‍या करते चले जा रहे थे। मनुष्‍यों को उनके इस षड़यन्‍त्र का पता नहीं लगता था। इस प्रकार वे तपस्‍या के धनी तापसों के संहार मे प्रवृत्त हो रहे थे। प्रात:काल आने पर नियमित आहार से दुर्बल मुनिगण अपने अस्थिमात्रावशिष्‍ट निष्‍प्राण शरीर से पृथ्‍वी पर पड़े दिखायी देते थे। राक्षसों द्वारा भक्षण करने के कारण उनके शरीरों का मांस तथा रक्‍त क्षीण हो चुका था। वे मज्जा, आंतों और संधि-स्‍थानों से रहित हो गये थे। इस तरह सब ओर फैली हुई सफेद हड्डियों के कारण वहाँ की भूमि शंखराशि से आच्‍छादित-सी प्रतीत होती थी।

उलटे-पुलटे पड़े हुए कलशों, टूटे-फूटे स्रुवों तथा बिखरी पड़ी हुई अग्निहोत्र की सामग्रियों से उन आश्रमों की भूमि आच्‍छादित हो रही थी। स्‍वाध्‍याय और वषटकार बंद हो गये। यज्ञोत्‍सब आदि कार्य नष्‍ट हो गये। कालकेयों के भय से पीड़ित हुए सम्‍पूर्ण जगत् में कहीं कोई उत्‍साह नहीं रह गया था। नरेश्‍वर! इस प्रकार दिन-दिन नष्‍ट होने वाले मनुष्य भयभीत हो अपनी रक्षा के लिये चारों दिशाओं में भाग गये। कुछ लोग गुफाओं में जा छिपे। कितने ही मानव झरनों के आसपास रहने लगे और कितने ही मनुष्‍य मृत्‍यु से इतने घबरा गये कि भय से ही उनके प्राण निकल गये।

इस भूतल पर कुछ महान् धनुर्धर शूरवीर भी थे, जो अन्‍यन्‍त हर्ष और उत्‍साह से युक्‍त हो दानवों के स्‍थान का पता लगाते हुए उनके दमन के लिये भारी प्रयत्‍न करने लगे। परंतु समुद्र में छिपे हुए दानवों को वे पकड़ नहीं पाते। उन्‍होंने बहुत परिश्रम किया और अन्त में थककर वे पुन: अपने घर को ही लौट आये। मनुजेश्वर! यज्ञोत्सव आदि कार्यों के नष्ट हो जाने पर जब जगत का विनाश होने लगा, तब देवताओं को बड़ी पीड़ा हुई।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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