महाभारत वन पर्व अध्याय 101 श्लोक 1-23

एकाधिकशततम (101) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

Prev.png

महाभारत: वन पर्व: एकाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद


वृत्रासुर का वध और असुरों की भयंकर मन्‍त्रणा

लोमश जी कहते हैं– राजन्! तदनन्‍तर वज्रधारी इन्द्र बलवान् देवताओं से सुरक्षित हो वृत्रासुर के पास गये। वह असुर भूलोक और आकाश को घेरकर खड़ा था। कालकेय नाम वाले विशालकाय दैत्‍य, जो हाथों में हथियार लिये होने के कारण पर्वतों के समान जान पड़ते थे, चारों ओर से उसकी रक्षा कर रहे थे। भरतश्रेष्‍ठ! इन्‍द्र के आते ही देवताओं का दानवों के साथ दो घड़ी तक बड़ा भीषण युद्ध हुआ, जो तीनों लोकों को त्रस्‍त करने वाला था। वीरों की भुजाओं के साथ उठे हुए खडग शत्रु के शरीर पर पड़ते और विपक्षी योद्धाओं के घातक प्रहारों से टूटकर चूर-चूर हो जाते थे, उस समय उनका अत्‍यन्‍त भयंकर शब्‍द सुन पड़ता था।

महाराज! अपने मूल स्‍थान से टूटकर गिरे हुए योद्धाओं के मस्‍तकों द्वारा वहाँ की भूमि आच्‍छादित दिखायी देती थी। कालकेयों ने सोने के कवच धारण करके हाथों में परिघ लिये देवताओं पर धावा किया। उस समय वे दानव दावानल से दग्‍ध हुए पर्वतों की भाँति दिखायी देते थे। अभिमानपूर्वक आक्रमण करने वाले उन वेगशाली दैत्‍यों का वेग देवताओं के लिये असह्य हो गया। वे अपने दल से बिछुड़ कर भय से भागने लगे। देवताओं को डरकर भागते देख वृत्रासुर की प्रगति का अनुमान करके सहस्र नेत्रों वाले इन्‍द्र पर महान् मोह छा गया। कालकेयों के भय से त्रस्‍त हुए साक्षात इन्‍द्र देव ने सर्वशक्तिमान नारायण की शीघ्रतापूर्वक शरण ली। इन्‍द्र को इस प्रकार मोहाच्‍छन्‍न होते देख सनातन भगवान विष्‍णु ने उनका बल बढ़ाते हुए उनमें अपना तेज स्‍थापित कर दिया। देवताओं ने देखा इन्‍द्र भगवान विष्‍णु के द्वारा सुरक्षित हो गये हैं, तब उन सब ने तथा शुद्ध अन्‍त:करण वाले ब्रह्मर्षियों ने भी देवराज इन्‍द्र में अपना-अपना तेज भर दिया। देवताओं सहित श्रीविष्‍णु तथा महाभाग महर्षियों के तेज से परिपूर्ण हो देवराज इन्‍द्र अत्‍यन्‍त बलशाली हो गये।

देवेश्‍वर इन्‍द्र को बल से सम्‍पन्‍न जान वृत्रासुर ने बड़ी विकट गर्जना की। उसके सिंहनाद से भूलोक, सम्‍पूर्ण दिशाएँ, आकाश, स्‍वर्गलोक तथा पर्वत सब-के-सब काँप उठे। राजन्! उस समय अत्‍यन्‍त भयानक गर्जना को सुनकर देवराज इन्‍द्र बहुत संतप्‍त हो उठे और भयभीत होकर उन्‍होंने बड़ी उतावली के सथ वृत्रासुर के वध के लिये अपने महान् वज्र का प्रहार किया। इन्‍द्र के वज्र से आहत होकर सुवर्णमालाधरी वह महान् असुर पूर्वकाल में भगवान विष्‍णु के हाथ से छूटे हुए महान् पर्वत मन्‍दर की भाँति पृथ्‍वी पर गिर पड़ा। महादैत्‍य वृत्रासुर के मारे जाने पर भी इन्‍द्र भय से पीड़ित हो तालाब में प्रवेश करने दौडे़। उन्‍हें भय के कारण यह विश्‍वास नहीं होता था कि वज्र मेरे हाथ से छूट चुका है और वृत्रासुर भी अवश्‍य मारा गया है। उस समय सब देवता बड़े प्रसन्‍न हुए। समस्‍त दैत्‍यों को तुरंत मार भगाया।

संगठित देवताओं द्वारा त्रास दिये जाने पर वे सब दैत्‍य भय से आतुर हो समुद्र में ही प्रवेश कर गये। मत्‍स्‍यों और मगरों से भरे हुए उस अपार महासगार में प्रविष्‍ट हो वे सम्‍पूर्ण दानव तीनों लोकों का नाश करने के लिये बड़े गर्व से एक साथ मन्‍त्रणा करने लगे। उनमें से कुछ दैत्‍य जो अपनी बुद्धि के निश्‍चय को स्‍पष्‍ट रूप से जानने वाले थे (जगत के विनाश के लिए) उपयोगी विभिन्‍न उपायों का वर्णन करने लगे। वहाँ क्रमश: दीर्घकाल तक उपाय चिन्‍तन में लगे हुए उन असुरों ने यह घोर निश्‍चय किया कि जो लोग विद्वान और तपस्वी हों, सबसे पहले उन्‍हीं का विनाश करना चाहिये। सम्‍पूर्ण लोक तप से ही टिके हुए हैं। अत: तुम सब लोग तपस्‍या के विनाश के लिये शीघ्रतापूर्वक कार्य करो। भूमण्‍डल में जो कोई भी तपस्‍वी, धर्मज्ञ एवं उन्‍हें जानने-मानने वाले हों, उन सब का तुरंत वध कर डालो। उनके नष्‍ट होने पर सारा जगत् नष्‍ट हो जायेगा। इस प्रकार बुद्धि और विचार से हीन वे समस्‍त दैत्‍य संसार के विनाश की बात सोचकर अत्‍यन्‍त हर्ष का अनुभव करने लगे। उत्ताल तरंगों से भरे हुए वरुण के निवास स्‍थान रत्‍नाकर समुद्ररूप दुर्ग का आश्रय लेकर वे उसमें निर्भय होकर रहने लगे।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में वृत्रवधोपाख्यान विषयक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः