महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-6

चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद
भगवान् की विभूत्ति और योगशक्ति का तथा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन, अर्जुन के पूछने पर भगवान् द्वारा अपनी विभूतियों का और योगशक्ति का पुन:वर्णन

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 10

संबंध- गीता के सातवें अध्‍याय से लेकर नवें अध्‍याय तक विज्ञान-सहित ज्ञान का जो वर्णन किया गया, उसके बहुत गम्‍भीर हो जाने के कारण अब पुन: उसी विषय को दूसरे प्रकार से भलीभाँति समझाने के लिये दसवें अध्‍याय का आरम्‍भ किया जाता है। यहाँ पहले श्लोक में भगवान् पूर्वोक्‍त विषय का ही पुन: वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हैं-

श्रीभगवान् बोले- हे महाबाहो! फिर भी तेरे परम रहस्‍य और प्रभावयुक्‍त वचन को सुन,[1] जिसे मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिये हित की इच्‍छा से कहूंगा।[2] संबंध- पहले श्लोक में भगवान् ने जिस विषय पर कहने की प्रतिज्ञा की है, उसका वर्णन आरम्‍भ करते हुए वे पहले पांच श्लोकों में योगशब्‍दवाच्‍य प्रभाव का और अपनी विभूति का संक्षिप्‍त वर्णन करते हैं।

मेरी उत्‍पत्ति को अर्थात् लीला से प्रकट होने को न देवता-लोग जानते हैं और न महर्षिजन[3] ही जानते हैं,[4] क्‍योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ।[5] जो मुझको अजन्‍मा अर्थात् वास्‍तव में जन्‍मरहित, अनादि और लोकों का महान् तत्त्‍व से जानता है,[6] वह मनुष्‍यों में ज्ञानवान् पुरुष सम्‍पूर्ण पापों से मुक्‍त हो जाता है।

निश्चय करने की शक्ति,[7] यथार्थ ज्ञान,[8] असम्‍मूढता,[9] क्षमा,[10] सत्‍य,[11] इन्द्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दु:ख,[12] उत्‍पति-प्रलय और भय-अभय[13] तथा अहिंसा,[14] समता,[15] संतोष,[16] तप,[17] दान,[18] कीर्ति और अपकीर्ति-ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं।[19] सात महर्षिजन,[20] चार[21] उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्‍वायम्‍भुव आदि चौदह मनु[22] ये मुझमें भाव वाले सब के सब मेरे संकल्‍प से उत्‍पन्‍न हुए है,[23] जिनकी संसार में यह सम्‍पूर्ण प्रजा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस अध्‍याय में भगवान् ने अपने गुण, प्रभाव और तत्त्‍व का रहस्‍य समझाने के लिये जो उपदेश दिया है, वही ‘परम वचन’ है और उसे फिर से सुनने के लिये कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मेरी भक्ति का तत्त्‍व अत्‍यंत ही गहन है; अत: उसे बार-बार सुनना परम आवश्‍यक समझकर बड़ी सावधानी के साथ श्रद्धा और प्रेमपूर्वक सुनना चाहिये।
  2. इस अध्‍याय में भगवान् ने अपने गुण, प्रभाव और तत्त्‍व का रहस्‍य समझाने के लिये जो उपदेश दिया है, वही ‘परम वचन’ है और उसे फिर से सुनने के लिये कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मेरी भक्ति का तत्त्‍व अत्‍यंत ही गहन है; अत: उसे बार-बार सुनना परम आवश्‍यक समझकर बड़ी सावधानी के साथ श्रद्धा और प्रेमपूर्वक सुनना चाहिये।
  3. ‘महर्षय:’ पद से यहाँ सप्‍त महर्षियों को समझना चाहिये।
  4. भगवान् का अपने अतुलनीय प्रभाव से जगत् का सृजन, पालन और संहार करने के लिये ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र के रूप में, दुष्टों के विनाश, धर्म के विनाश, धर्म के संस्‍थापन तथा नाना प्रकार की लीलाओं के द्वारा जगत् के प्राणियों के उद्धार के लिये श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि दिव्‍य अवतारों के रूप में; भक्‍तों को दर्शन देकर उन्‍हें कृतार्थ करने के लिये उनके इच्‍छानुरूप नाना रूपों में तथा लीलावैचिव्‍य की अनन्‍त धारा प्रवाहित करने के लिये समस्‍त विश्व के रूप में जो प्रकट होना है- उसी का वाचक यहाँ ‘प्रभव’ शब्‍द है। उसे देवसमुदाय और महर्षिलोग नहीं जानते, इस कथन से भगवान्ने यह भाव दिखलाया है कि मैं किस-किस समय किन-किन रूपों में किन-किन हेतुओं से किस प्रकार प्रकट होता है- इसके रहस्‍य को साधारण मनुष्‍यों की तो बात ही क्‍या है, अतीन्द्रिय विषयों को समझने में समर्थ देवता और महर्षि लोग भी यथार्थरूप से नहीं जानते।
  5. इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिन देवता और म‍हर्षियों से इस सारे जगत् की उत्‍पत्ति हुई है, वे सब मुझसे ही उत्‍पन्‍न हुए हैं; उनका निमित्‍त और उपादान कारण मैं ही हूँ और उनमें जो विद्या, बुद्धि, शक्ति, तेज आदि प्रभाव हैं- वे सब भी उन्‍हें मुझसे ही मिलते हैं। ‘सुरगण:’ पद एकादश रुद्र, आठ वसु, बारह आदित्‍य, प्रजापति, उन्चास मरुद्गण, अश्र्विनी कुमार और इन्‍द्र आदि जितने भी शास्‍त्रीय देवताओं के समुदाय हैं- उन सबका वाचक है।
  6. भगवान् अपनी योगमाया से नाना रूपों में प्रकट होते हुए भी अजन्‍मा हैं (गीता 4।6), अन्‍य जीवों की भाँति उनका जन्‍म नहीं होता, वे अपने भक्‍तों को सुख देने और धर्म की स्‍थापना करने के लिये केवल जन्‍मधारण की लीला किया करते हैं-इस बात को श्रद्धा ओर विश्वास के साथ ठीक-ठीक समझ लेना तथा इसमें जरा भी संदेह न करना-यही ‘भगवान्-को अजन्‍मा जानना’ है तथा भगवान् ही सबके आदि अर्थात् महाकारण हैं, उनका कोई नहीं है; वे नित्‍य हैं तथा सदा से हैं, अन्‍य पदार्थों की भाँति उनका किसी कालविशेष से आरम्‍भ नहीं हुआ है-इस बात को श्रद्धा और विश्वास के साथ ठीक-ठीक समझ लेना- ‘भगवान् को अनादि जानना’ है। एवं जितने भी ईश्वर कोटि में गिने जाने वाले इन्‍द्र, वरुण, यम, प्रजापति आदि लोकपाल हैं-भगवान् उन सबके महान् ईश्‍वर हैं; वे ही सबके नियंता, प्रेरक, कर्ता, हर्ता, सब प्रकार से सबका भरण-पोषण और संरक्षण करने वाले सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं- इस बात को श्रद्धापूर्वक संशयरहित ठीक-ठीक समझ लेना ‘भगवान् को लोकों का महान् ईश्वर जानना’ है।
  7. कर्तव्‍य-अकर्तव्‍य, ग्राह्य-अग्राह्य और भले-बुरे आदि का निर्णय करके निश्चय करने वाली जो वृत्ति है, उसे ‘बुद्धि’ कहते हैं।
  8. किसी भी पदार्थ को यथार्थ जान लेना ‘ज्ञान’ है; यहाँ ‘ज्ञान’ शब्‍द साधारण ज्ञान से लेकर भगवान् के स्‍वरूपज्ञान- तक सभी प्रकार के ज्ञान का वाचक है।
  9. भोगासक्‍त मनुष्‍यों को नित्‍य और सुखप्रद प्रतीत होने वाले के समस्‍त सांसारिक भोगों को अनित्‍य, क्षणिक और दु:ख-मूलक समझकर उनमे मोहित न होना-यही ‘असम्‍मोह’ है।
  10. बुरा चाहना, बुरा करना, घनादि हर लेना, अपमान करना, आघात पहुँचाना, कड़ी जबान कहना या गाली देना, निंदा या चुगली करना, आग लगाना, विष देना, मार डालना और प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष में क्षति पहुँचाना आदि जितने भी अपराध हैं, इनमें से एक या अधिक किसी प्रकार का भी अपराध करने वाला कोई भी प्राणी क्‍यों न हो, अपने में बदला लेने का पूरा सामर्थ्‍य रहने पर भी उससे उस अपराध का किसी प्रकार भी बदला लेने की इच्‍छा का सर्वथा त्‍याग कर देना और उस अपराध के कारण उस इस लोक या परलोक में कोई भी दण्‍ड न मिले-ऐसा भाव होना 'क्षमा' है।
  11. इन्द्रिय और अन्‍त:करण द्वारा जा बात जिस रूप में देखी, सुनी और अनुभव की गयी हो, ठीक उसी रूप में दूसरे को समझाने के उद्देश्‍य से हितकर प्रिय शब्‍दों में उसको प्रकट करना 'सत्‍य' है।
  12. 'सुख' शब्‍द यहाँ प्रिय (अनुकूल) वस्‍तु के संयोग से और अप्रिय (प्रतिकुल) के वियोग से होने वाले सब प्रकार के सुखों-का वाचक है। इसी प्रकार प्रिय के वियोग से अप्रिय के संयोग से होने वाले 'आधिभौतिक' 'आधिदैविक' और आध्‍यात्मिक-सब प्रकार के दु:खों का वाचक यहाँ 'दु:ख' शब्‍द है। मनुष्‍य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि प्राणियों के निमित्‍त से प्राप्‍त होने वाले कष्‍टों को 'आधिभौतिक', अनावृष्टि, अति‍वृष्टि, भूकम्‍प, वज्रपात और अकाल आदि दैवीप्रकोप से होने वाले कष्‍टों को 'आधिदैविक' और शरीर, इन्द्रिय तथा अन्‍त:करण में किसी प्रकार के रोग से होने वाले कष्‍टों को 'अध्‍यात्मिक' दु:ख कहते हैं।
  13. सर्गकाल में समस्‍त चराचर जगत् का उत्‍पन्‍न होना 'भव' है, प्रलयकाल में उसका लीन हो जाना 'अभाव' है। किसी प्रकार की हानि या मृत्‍यु के कारण को देखकर अन्‍त:करण में उत्‍पन्‍न होने वाले भाव का नाम 'भय' है और सर्वत्र एक परमेश्वर को व्‍याप्‍त समझ लेने से अथवा अन्‍य किसी कारण से भय का जो सर्वथा अभाव हो जाना है वह 'अभय' है।
  14. किसी भी प्राणी को किसी भी समय किसी भी प्रकार से मन, वाणी या शरीर के द्वारा जरा भी कष्‍ट न पहुँचाने के भाव को ‘अहिंसा’ कहते हैं।
  15. सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय, निंदा-स्‍तुति, मान-अपमान, मित्र-शत्रु आदि जितने भी क्रिया, पदार्थ और घटना आदि विषमता हेतु माने जाते हैं, उन सबमें निरंतर राग द्वेषरहित समबुद्धि रहने के भाव को 'समता' कहते हैं।
  16. जो कुछ भी प्राप्‍त हो जाय, उसे प्रारब्‍ध का भोग या भगवान् का विधान समझकर सदा संतुष्‍ट रहने के भाव को 'तुष्टि' कहते हैं।
  17. स्‍वधर्म-पालन के लिये कष्‍ट सहन करना 'तप' है।
  18. अपने स्‍वत्‍व को दूसरों के हित के लिये वितरण करना 'दान' है।
  19. इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि विभिन्‍न प्राणियों के उनकी प्रकृति के अनुसार उपर्युक्‍त प्रकार के जितने भी विभिन्‍न भाव होते हैं, वे सब मुझसे ही होते हैं, अर्थात् वे सब मेरी ही सहायता, शक्ति और सताये होते हैं। 'मैंने विविध प्रकार के लोकों को उत्‍पन्‍न करने की इच्‍छा से जो सबसे पहले तप किया, उस मेरी अखण्डित तपस्‍या से ही भगवान् स्‍वयं सनक, सनंदन, सनातन और सनत्‍कुमार-इन चार 'सन' नाम वाले रूपों में प्रकट हुए और पूर्वकल्‍य में प्रलय-काल के समय जो आत्‍मतत्‍त्‍व के ज्ञान के प्रचार इस संसार में नष्‍ट हो गया था, उसका इन्‍होंने भलीभाँति उपदेश किया, जिससे उन मुनियों ने अपने हृदय में आत्‍म्‍तत्त्व साक्षात्‍कार किया।'
  20. सप्‍तर्षियों के लक्षण बतलाते हुए कहा गया है-

    एतान् भावानधीयता ये चैत ॠषयो मता:।
    सप्‍तैते सप्‍तभिश्‍चैव गुणै: सप्‍तर्षया समृता:।।
    दीर्घायुषो मन्‍त्रकृत ईश्वरा दिव्‍यचक्षुष:।
    वृद्धा: प्रत्‍यक्षधर्माणो गोत्रप्रवर्तकाश्च।। (वायुपुराण 61।93-94)

    'तथा देवर्षियों के इन (उपर्युक्‍त) भावों का जो अध्‍ययन (स्‍मरण) करने वाले हैं, वे ऋषि माने गये हैं; इन ऋषियों में जो दीर्घायु, मन्‍त्रकर्ता, ऐश्वर्यवान्, दिव्‍य-दृष्टियुक्‍त, गुण, विद्या और आयु में वृद्ध, धर्म का प्रत्‍यक्ष (साक्षात्‍कार) करने वाले और गोत्र चलाने वाले हैं- ऐसे सातों गुणों से युक्‍त सात ऋषियों को ही सप्‍तर्षि कहते हैं।' इन्‍हीं से प्रजा का विस्‍तार होता है और धर्म की व्‍यवस्‍था चलती है। यहाँ जिन सप्‍तर्षियों का वर्णन है, उनको भगवान् ने 'महर्षि' कहा है और उन्‍हें संकल्‍प से उत्‍पन्‍न बतलाया है। इसलिये यहाँ उन्‍हीं का लक्ष्य है, जो ऋषियों से भी उच्‍च स्‍तर के हैं। ऐसे सप्‍तर्षियों का उल्‍लेख महाभारत-शांतिपर्व में मिलता है; इनके लिये साक्षात् परम पुरुष परमेश्वर ने देवताओं सहित ब्रह्मा जी से कहा है-

    मरीचिरङ्गिराश्चात्रि पुलस्‍त्‍य: क्रतु:।
    वसिष्‍ठ इति सप्‍तैते मानसा निर्मिता हि ते।।
    एते वेदविदो मूख्‍या वेदाचार्याश्य कल्पिता:।
    प्रवृत्तिधर्मिणश्‍चैव प्राजापत्‍ये च कल्पिता:।। (महा. शांति. 349।69-70)

    'मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्‍त्‍य, पुलह, क्रतु और वसिष्‍ठ– ये सातों महर्षि तुम्‍हारे (ब्रह्मा जी के) द्वारा ही अपने मने से रचे हुए हैं। ये सातों वेद के ज्ञाता हैं, इनको मैंने मुख्‍य वेदाचार्य बनाया है। ये प्रवृत्तिमार्ग का संचालन करने वाले हैं और (मेरे ही द्वारा) प्रजापति के कर्म में नियुक्‍त किये गये हैं।' इस कल्‍प सर्वप्रथम स्‍वायम्‍भुव मन्‍वंतर के सप्‍तर्षि यही हैं (हरिवंश. 7।8, 9)। अतएव यहाँ सप्‍तर्षियों से इन्‍ही का ग्रहण करना चाहिये।
  21. 'चत्‍वार' पूर्वे' से सबसे पहले होने वाले सनक, सनंदन, सनातन और सनत्‍कुमार- इन चारों को लेना चाहिये। ये भी भगवान् के ही स्‍वरूप हैं और ब्रह्मा जी के तप करने पर स्‍वेच्‍छा से प्रकट हुए हैं। ब्रह्मा जी ने स्‍वयं कहा है-

    तप्‍तं तपो विविधलोकसिसृक्षया में आदौ सनात् स्‍वतपस: स चतु:सनोअभूत्।
    प्राक्‍कल्‍पसम्‍प्लव विनष्‍टमिहात्‍मतत्त्वं सम्‍यग् जगाद मुनयो यदचक्षतात्‍मन्।। (श्रीमद्भागवत 2।7।5)

  22. ब्रह्मा के ए‍क दिन में चौदह मनु होते हैं, प्रत्‍येक मनु के अधिकार काल को 'मन्‍तंर' कहते हैं। इकहत्‍तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल का एक मन्‍वंतर होता है। मानवी वर्ष गणना के हिसाब से एक मन्‍वंतर तीस करोड़ सड़सठ लाकप बीस हजार वर्ष से और दिव्‍य-वर्षगणना के हिसाब से आठ लाख बावन हजार वर्ष से कुछ अधिक काल का होता है (विष्‍णुपुराण 13) सूर्यसिद्धांत में मन्‍वंतर आदि का जो वर्णन है, उसके अनुसार इस प्रकार समझना चाहिये- सौरमान से 43,20,000 वर्ष की अथवा देवमान से 12,000 वर्ष की एक चतुर्युगी होती है। इसी को महायुग कहते हैं। ऐसे इकहत्‍तर युगों का एक मन्‍वंतर होता है। प्रत्‍येक मन्‍वंतर के अंत में सत्‍ययुग के मान की अर्थात् 17,28,000 वर्ष की संध्‍या होती है। मन्‍वंतर बीतने पर जब संध्‍या होती है, तब सारी पृथ्‍वी जल में डूब जाती है। प्रत्‍येक कल्‍प में (ब्रह्मा के एक दिन में) चौदह मन्‍वंतर अपनी-अपनी संध्याओं के मान के सहित होते हैं। इसके सिवा कल्‍प के आरम्‍भकाल में एक सत्‍ययुग के मान काल की संध्‍या होती है। इस प्रकार एक कल्‍प के चौदह मनुओं में 71 चतुर्युगी के अतिरिक्‍त सत्‍ययुग के मान की 15 संध्‍याएं होती हैं। 71 महायुगों के मान से 14 मनुओं में 994 महायुग होते हैं और सत्‍ययुग के मान की 15 संध्‍याओं का काल पूरा 6 महायुगों के समान हो जाता है। दोनों का योग मिलाने पर पूरे एक हजार महायुग या दिव्‍ययुग बीत जाते हैं। इस हिसाब से निम्‍नलिखित अंकों के द्वारा इसको समझिये–

                                                    सौरमान या मानव वर्ष - देवमान या दिव्‍य वर्ष
    एक चतुर्युगी (महायुग या दिव्‍ययुग) - 43,20,000 - 12,000
    इकहत्‍तर चतुर्युगी - 30,67,20, - 8,52,000
    कल्‍पकी संधि - 17,28,000 - 4,800
    मन्‍वंतर की चौदह संध्‍या - 2,41,92,000 - 67,200
    संधिसहित एक मन्‍वंतर - 30,84,48,000 - 8,56,800
    चौदह संध्‍यासहित चौदह मन्‍वंतर - 4,31,82,72,000 - 1,19,96,200
    कल्‍प की संधिसहित चौदह मन्‍वंतर या एक कल्‍प - 4,32,00,00,000 - 1,20,00,000

    ब्रह्मा जी का दिन ही कल्‍प है, इतनी ही बड़ी उनकी रात्रि है। इस अहोरात्र के मान से ब्रह्माजी की परमायु एक सौ वर्ष है। इसे 'पर' कहते हैं। इस समय ब्रह्माजी अपनी आयु का आधा भाग अर्थात् एक परार्द्ध बिताकर दूसरे परार्द्ध में चल रहे हैं। यह उनके 51 वे वर्ष का प्रथम दिन या कल्‍प है। वर्तमान कल्‍प के आरम्‍भ में अब तक स्‍वायम्‍भुव आदि छ: मन्‍वंतर अपनी-अपनी संध्‍याओं सहित बीत चुके हैं, कल्‍प की संध्‍या समेत सात संध्‍याएं बीत चुकी हैं। वर्तमान सातवें वैवस्‍तन मन्‍वंतर के 27 चतुर्युग बीत चुके हैं। इस समय अट्ठाईसवें चतुर्युग के कलियुग का संध्‍याकाल चल रहा है। (सूर्यसिद्धात, मध्‍यमाधिकार, श्‍लोक 15 से 14 देखिये) इस 2013 वि. तक कलियुग के 5057 वर्ष बीते हैं। कलियुग के आरम्भ में 36,000 वर्ष संध्‍याकाल का मान होता है। इस हिसाब से अभी कलियुग की संध्‍या के 30,943 सौर वर्ष बीतने बाकी हैं। प्रत्‍येक मन्‍वंतर में धर्म की व्‍यवस्‍था और लोकरक्षण के लिये भिन्‍न–भिन्‍न सप्‍तर्षि होते हैं। एक मन्‍वंतर के बीत जाने पर जब मनु बदल जाते हैं, तब उन्‍हीं के साथ सप्‍तर्षि, देवता, इन्‍द्र और मनुपुत्र भी बदल जाते हैं। वर्तमान कल्‍प के मनुओं के नाम ये हैं- स्‍वायम्‍भुव, स्‍वारोचिष, उत्‍तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्‍वत, सा‍वर्णि, दक्षसा‍वर्णि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, देवसावर्णि और इन्‍द्रसावर्णि। चौदह मनुओं का एक कल्‍प बीत जाने पर सब मनु भी बदल जाते हैं।

  23. ये सभी भगवान् में श्रद्धा ओर प्रेम रखने वाले हैं, यही भाव दिखलाने के लिये इनको मुझ में भाव वाले बतलाया गया है तथा इनकी जो ब्रह्माजी से उत्‍पत्ति होती है, वह वस्‍तुत: भगवान् से ही होती है क्‍योंकि स्‍वयं भगवान् ही जगत् की रचना के लिये ब्रह्मा का रूप धारण करते हैं। अतएव ब्रह्मा के मन से उत्‍पन्‍न होने वालों को भगवान् 'अपने मन से उत्‍पन्‍न होने वाले' कहें तो इसमें कोई विरोध की बात नहीं है।

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