महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 30 श्लोक 1-3

त्रिंश (30) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: त्रिश अध्याय: श्लोक 1-3 का हिन्दी अनुवाद

निष्‍काम कर्मयोग का प्रतिपादन करते हुए आत्‍मोद्धार के लिये प्रेरणा तथा मनोनिग्रहपूर्वक ध्‍यान योग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 6


संबंध- पांचवें अध्‍याय के आरम्‍भ में अर्जुन ने ‘कर्मसंन्‍यास’ (सांख्‍ययोग) और ‘कर्मयोग’- इन दोनों में से कौन-सा एक साधन मेरे लिये सुनिश्चित कल्‍याणप्रद है?- यह बतलाने के लिये भगवान् से प्रार्थना की थी। इस पर भगवान् ने दोनों साधनों-को कल्‍याणप्रद सुगमता होने के कारण ‘कर्मसंन्‍यास’ की अपेक्षा ‘कर्मयोग’ की श्रेष्‍ठता का प्रतिपादन किया। तदनंतर दोनों साधनों के स्‍वरूप, उनकी विधि और उनके फल का भलीभाँति निरुपण करके दोनों के लिये ही अत्‍यंत उपयोगी एवं परमात्‍मा-की प्राप्ति का प्रधान उपाय समझकर संक्षेप में ध्‍यानयोग का भी वर्णन किया; परंतु दोनों में से कौन-सा साधन करना चाहिये, इस बात को न तो अर्जुन को स्‍पष्‍ट शब्‍दों में आज्ञा ही की गयी और न ध्‍यानयोग का ही अंग-प्रत्‍यंगोंसहित विस्‍तार से वर्णन हुआ। इसलिये अब ध्‍यानयोग का अंगोंसहित विस्‍तृत वर्णन करने के लिये छठे अध्‍याय का आरम्‍भ करते हुए सबसे पहले अर्जुन को भक्तियुक्‍त कर्मयोग में प्रवृत्त करने के उद्देश्‍य से कर्मयोग की प्रशसा करते हैं।

श्रीभगवान् बोले- जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर[1] करने योग्‍य कर्म करता है,[2] वह संन्‍यासी तथा योगी है[3] और केवल अग्नि का त्‍याग करने वाला संन्‍यासी नहीं हैं[4] तथा केवल क्रियाओं का त्‍याग करने वाला योगी नहीं हैं।[5]

संबंध- पहले श्लोक में भगवान् ने कर्मफल का आश्रय न लेकर कर्म करने वाले को संन्‍यासी और योगी बतलाया। उस पर यह शंका हो सकती है कि यदि ‘संन्‍यासी’ और ‘योग’ दोनों भिन्‍न-भिन्‍न स्थिति हैं तो उपर्युक्‍त साधक दोनों से सम्‍पन्‍न कैसे हो सकता है; अत: इस शंका का निराकरण करने के लिये दूसरे श्लोक में ‘संन्‍यास’ ‘योग’ की एकता का प्रतिपादन करते हैं- हे अर्जुन! जिसको संन्‍यास ऐसा कहते हैं, उसी का तू योग जान;[6] क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता। योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिये योग की प्राप्ति में निष्‍कामभाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता हैं[7] और योगरूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव हैं[8] वही कल्याण में हेतु कहा जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्‍त्री, पुत्र, धन, मान और बड़ाई आदि इस लोक के और स्‍वर्गसुखादि परलोक के जितने भी भोग हैं, उन सभी का ‘कर्मफल’ में कर लेना चाहिये। साधारण मनुष्‍य जो कुछ भी कर्म करता है, किसी-न-किसी फल का आश्रय लेकर ही करता है। इसलिये उसके कर्म उसे बार-बार जन्‍म-मरण के चक्‍कर में गिराने वाले होते हैं। अतएव इस लोक और परलोक के सम्‍पूर्ण भोगों को अनित्‍य, क्षणभंगुर और दु:खों में हेतु समझकर समस्‍त कर्मों में ममता, आसक्ति और फलेच्‍छा का सर्वथा त्‍याग कर देना ही कर्मफल के आश्रय का त्‍याग करना है।
  2. अपने-अपने वर्णाश्रम के अनुसार जितने भी शास्‍त्रविहित नित्‍य-नैमित्तिक यज्ञ, दान, तप, शरीरनिवाह संबंधी तथा लोक सेवा आदि के लिये किये जाने वाले शुभ कर्म हैं, वे सभी करने योग्‍य कर्म हैं। उन सबको यथाविधि तथा यथायोग्‍य आलस्‍यरहित होकर अपनी शक्ति के अनुसार कर्तव्‍यबुद्धि से उत्‍साहपूर्वक सदा करते रहना ही उनका करना है।
  3. ऐसा कर्मयोगी पुरुष समस्‍त संकल्‍पों का त्‍यागी होता है और उस यथार्थ ज्ञान को प्राप्‍त हो जाता है जो सांख्‍ययोग और कर्मयोग दोनों ही निष्‍ठाओं का चरम फल है, इसलिये वह ‘संन्‍यासित्‍व’ और ‘योगित्‍व’ दोनों ही गुणों में युक्‍त माना जाता है।
  4. जिसने अग्नि को त्‍यागकर संन्‍यास-आश्रम का तो ग्रहण कर लिया है; परंतु जो ज्ञानयोग (सांख्‍ययोग) के लक्षणों से युक्‍त नहीं है, वह वस्‍तुत: संन्‍यासी नहीं है, कयोंकि उसने केवल अग्नि का ही त्‍याग किया है, समस्‍त क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान का त्‍याग तथा ममता, आसक्ति और देहाभिमान का त्‍याग नहीं किया।
  5. जो सब क्रियाओं का त्‍याग करके ध्‍यान लगाकर तो बैठ गया है, परंतु जिसके अंत:करण में अहंता, ममता, राग, द्वेष, कामना आदि दोष वर्तमान हैं, वह भी वास्‍तव में योगी नहीं है; क्‍योंकि उसने भी केवल बाहरी क्रियाओं का ही त्‍याग किया है, ममता, अभिमान, आसक्ति, कामना ओर क्रोध आदि का त्‍याग नहीं किया।
  6. यहाँ संन्यास शब्द का अर्थ है- शरीर, इन्द्रिय और मनद्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन का भाव मिटाकर केवल परमात्मा में ही अभिन्न-भाव से स्थित हो जाना। यह सांख्‍ययोग की पराकाष्‍ठा है तथा ‘योग’ शब्द का अर्थ है- ममता, आसक्ति और कामना के त्याग द्वारा होने वाली ‘कर्मयोग’ की पराकाष्‍ठारूप नैष्‍कर्म्य-सिद्धि। दोनों में ही संकल्पों का सर्वथा अभाव हो जाता हैं और सांख्‍ययोगी जिस परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होता है, कर्मयोगी भी उसी को प्राप्त होता है। इस प्रकार दोनों में ही समस्त संकल्पों का त्याग है और दोनों का एक ही फल हैं; इसलिये दोनों की एकता की गयी है।
  7. अपने वर्ण, आश्रम, अधिकार और स्थिति के अनुकूल जिस समय जो कर्तव्य-कर्म हों, फल और आसक्ति का त्याग करके उनका आचरण करना योगारूढ़ अवस्था की प्राप्ति में हेतु हैं- इसीलिये गीता के तीसरे अध्‍याय के चौथे श्‍लोक में भी कहा है कि कर्मों का आरम्भ किये बिना मनुष्‍य नैष्‍कर्म्य अर्थात् योगारूढ़-अवस्था को नहीं प्राप्त हो सकता।
  8. मन वश में होकर शान्त हो जाने पर ही संकल्पों का सर्व‍था अभाव होता है। इसके अतिरिक्त कर्मों का स्वरूपत: सर्वथा त्याग हो भी नहीं सकता। अतएव यहाँ ‘शम:’ का अर्थ सर्वसंकल्पों का अभाव माना गया हैं।

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