द्वयधिकद्विशततम (202) अध्याय: द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: द्वयधिकद्विशततम अध्याय: 1-16 श्लोक का हिन्दी अनुवाद
संजय ने कहा– भरतश्रेष्ठ! धृष्टद्युम्न द्वारा अतिरथी वीर द्रोणाचार्य के मारे जाने पर जब समस्त कौरव भाग खड़े हुए, उस समय अपने को विजय दिलाने वाली एक अत्यन्त आश्चर्यमयी घटना कुन्तीपुत्र अर्जुन ने अकस्मात वहाँ आये हुए वेदव्यास जी से उसके सम्बन्घ में इस प्रकार पूछा। अर्जुन बोल-- महर्षे! जब मैं अपने निर्मल बाणों द्वारा शत्रु सेना का संहार कर रहा था, उस समय मुझे दिखायी दिया कि एक अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष मेरे आगे-आगे चल रहे हैं। महामुने! वे जलता हुआ शूल हाथ में लेकर जिस ओर जाते उसी दिशा में मेरे शत्रु विदीर्ण हो जाते थे। उन्होंने ही मेरे समस्त शत्रुओं को मार भगाया है, किन्तु लोग समझते हैं कि मैंने ही उन्हें मारा और भगाया है शत्रुओं की सारी सेनाएँ उन्हीं के द्वारा नष्ट की गयी, मैं तो केवल उनके पीछे पीछे चलता था। भगवन! मुझे बताइये, वे महापुरुष कौन थे? मैने उन्हें हाथ में त्रिशूल लिये देखा था। वे सूर्य के समान तेजस्वी थे। वे अपने पैरों से पृथ्वी का स्पर्श नहीं करते थे त्रिशूल को अपने हाथ से अलग कभी नहीं छोड़ते थे उनके तेज से उस एक ही त्रिशूल से सहस्त्रों नये नये शूल प्रकट होकर शत्रुओं पर गिरते थे। व्यास जी ने कहा– अर्जुन! जो प्रजापतियों में प्रथम, तेजः स्वरूप, अन्तर्यामी तथा सर्वसमर्थ हैं, भूर्लोंक, भुवर्लोक आदि समस्त भुवन जिनके स्वरूप हैं, जो दिव्य विग्रहधारी तथा सम्पूर्ण लोकों के शासक एवं स्वामी हैं, उन्हीं वरदायक ईश्वर भगवान शंकर का तुमने दर्शन किया है वे बरद देवता सम्पूर्ण जगत के ईश्वर हैं, तुम उन्हीं की शरण में जाओ। वे महान देव हैं उनका हृदय महान है। वे सब पर शासन करने वाले, सर्वव्यापी और जटाधारी हैं। उनके तीन नेत्र और विशाल भुजाएँ हैं, रुद्र उनकी संज्ञा है, उनके मस्तक पर शिखा तथा शरीर पर वल्कल वस्त्र शोभा देता है। महादेव, हर और स्थाणु आदि नामों से प्रसिद्ध वरदायक भगवान शिव सम्पूर्ण भुवनों के स्वामी हैं। वे ही जगत के कारण भूत अव्यक्त प्रकृति है। वे किसी से भी पराजित नहीं होते हैं। जगत को प्रेम और सुख की प्राप्ति उन्हीं से होती है। वे ही सबके अध्यक्ष हैं। वे ही जगत की उत्पत्ति के स्थान, जगत के बीज, विजयशील, जगत के आश्रय, सम्पूर्ण विश्व के आत्मा, विश्व विधाता, विश्व रूप और यशस्वी हैं। वे ही विश्वेश्वर, विश्वनियन्ता, कर्मो के फलदाता ईश्वर और प्रभावशाली हैं। वे ही सबका कल्याण करने वाले और स्वयंभू हैं। सम्पूर्ण भूतों के स्वामी तथा भूत, भविष्य और वर्तमान के कारण भी वे ही हैं। वे ही योग और योगेश्वर हैं, वे ही सर्वस्वरूप और सम्पूर्ण लोकेश्वरों के भी ईश्वर हैं। सबसे श्रेष्ठ, सम्पूर्ण जगत से श्रेष्ठ और श्रेष्ठतम परमेष्ठी भी वे ही हैं। तीनों लोकों के एक मात्र स्त्रष्टा, त्रिलोकी के आश्रम, शुद्धात्मा, भव, भीम और चन्द्रमा का मुकुट धारण करने वाले भी वे ही हैं।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सन्दर्भ त्रुटि: अमान्य
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