षण्णवत्यधिकशततम (196) अध्याय: द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: षण्णवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय! अपने पिता के वध को सहन न कर सकने वाले अत्यन्त शोकसंतप्त द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के साथ जब सारी सेनाएं युद्धस्थल में लौट आयीं, तब कौरवों को आते देख पाण्डव दल में धृष्टद्युम्न की रक्षा के लिये क्या विचार हुआ, वह मुझे बताओ। संजय कहा- राजन! राजा युधिष्ठिर ने पहले तो आपके सैनिकों को भागते देखा था। फिर उन्होंने वह भयंकर शब्द सुनकर अर्जुन से कहा। युधिष्ठिर बोले- 'धनंजय! पूर्वकाल में जैसे वज्रधारी इन्द्र ने महान असुर वृत्रासुर को मार डाला था, उसी प्रकार युद्धस्थल में धृष्टद्युम्न द्वारा आचार्य द्रोण के मारे जाने पर युद्ध में अपनी विजय से निराश हो दीनचित्त कौरव आत्मरक्षा का विचार करके रणभूमि से भागे जा रहे थे। जिनके पार्श्व रक्षक और सारथि मारे गये थे, ध्वजा, पताका और छत्र नष्ट हो गये थे, कूबर टूटकर बिखर गये थे, बैठने के स्थान चौपट हो चुके थे तथा धुरे, जुए और पहिये भी टूट-फूट गये थे, वैसे रथ भी व्याकुल घोड़ों से आकृष्ट हो वहाँ चक्कर लगा रहे थे और उनके द्वारा कुछ विशेष घायल हुए नरेश चारों ओर खिंचे चले जा रहे थे। कुछ लोग भयभीत हो घोड़ों को पैरों से मार-मारकर स्वयं जल्दी जल्दी रथ हांक रहे थे और कुछ लोग टूट हुए रथों को छोड़कर पैदल ही भागने लगे थे। कितने ही योद्धा घोड़ों की पीठ पर बैठे, परंतु उनका आधा आसन खिसक गया और उसी अवस्था में घोड़ों के साथ खिंचे चले गये। कुछ लोग नाराचों की मार खाकर अपने आसन से भ्रष्ट हो हाथियों के कंधो से चिपक गये थे और उसी अवस्था में बाणों से पीड़ित हो भागते हुए हाथी उन्हें दसों दिशाओं में लिये जाते थे। कुछ लोगों के अस्त्र-शस्त्र और कवच कट गये ओर वे अपने वाहनों से पृथ्वी पर गिर पड़े। उस दशा में रथ के पहियों की नेमि से दब कर उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो गये और कितने ही घोड़ों तथा हाथियों से कुचल गये। दूसरे बहुत से योद्धा हा तात! हा पुत्र! की रट लगाते हुए भयभीत होकर भाग रहे थे। मोह से बल और उत्साह नष्ट हो जाने के कारण वे ऐसे अचेत हो रहे थे कि एक दूसरे को पहचान भी नहीं पाते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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