महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 124 श्लोक 1-17

चतुर्विंशत्यधिकशतकम (124) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: चतुर्विंशत्यधिकशतकम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


कौरव-पाण्डव-सेना का घोर युद्ध तथा पाण्डवों के साथ दुर्योधन का संग्राम


धृतराष्ट्र ने पूछा - संजय! क्या मेरी उस सेना में कोई भी महारथी वीर नहीं थे, जिन्होंने अर्जुन के पास जाते हुए सात्यकि को न तो मारा और न उन्हें रोका ही। जैसे देवराज इन्द्र दानवों के साथ युद्ध में पराक्रम दिखाते हैं, उसी प्रकार इन्द्रतुल्य बलशाली सत्य पराक्रमी सात्यकि ने समरांगण में अकेले ही महान कर्म किया। अथवा जिस मार्ग से सात्यकि आगे बढ़े थे, वह वीरों से शून्य तो नहीं हो गया था वहाँ के अधिकांश सैनिक मारे तो नहीं गये थे। संजय! तुम रणक्षेत्र में वृष्णि वंश के वीर सात्यकि के द्वारा किये हुए जिस कर्म की प्रशंसा कर रहे हो, वह कर्म देवराज इन्द्र भी नहीं कर सकते। वृष्णि और अंधक वंश के प्रमुख वीर महामना सात्यकि का वह कर्म अचिन्त्य ( सम्भावना से परे ) है। उस पर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता। उसे सुनकर मेरा मन व्यथित हो उठा है। संजय! जैसा कि तुम बता रहे हो, यदि एक ही सत्य पराक्रमी सात्यकि ने मेरी बहुत सी सेनाओं को धूल में मिला दिया है, तब तो मुझे यह मान लेना चाहिये कि मेरे पुत्र जीवित नहीं हैं। संजय! जब बहुत से महामनस्वी वीर युद्ध कर रहे थे, उस समय अकेले सात्यकि उन्हें पराजित करके कैसे आगे बढ़ गये, यह सब मुझे बताओ।

संजय ने कहा - राजन! रथ, हाथी, घोड़े और पैदलों से भरा हुआ आपका सेना सम्बन्धी उद्योग महान था। आपके सैनिकों का समाहार प्रलय काल के समान भयंकर जान पड़ता था। मानद! जब आपकी सेना के भिन्न-भिन्न समूह सब ओर से बुलाये गये, उस समय जो महान समुदाय एकत्र हुआ, इसके समान इस संसार में दूसरा कोई समूह नहीं था, ऐसा मेरा विश्वास है। वहाँ आये हुए देवता तथा चारण ऐसा कहते थे कि इस भूतल पर सारे समूहों की अन्तिम सीमा यही होगी। प्रजानाथ! जयद्रथ वध के समय उद्वेलित हुए समुद्रों के जल से जैसा भैरव गर्जन सुनायी देता है, उस रणक्षेत्र में एक दूसरे पर धावा करने वाले सैन्य-समूहों का कोलाहल भी वैसा ही भयंकर था। नरश्रेष्ठ! आपकी और पाण्डवों की सेनाओं में सब ओर से एकत्र हुए भूमिपालों के सैंकड़ों और हजारों दल थे। वे सभी प्रमुख वीर रोषावेष से परिपूर्ण हो समरभूमि में सुदृढ़ पराक्रम कर दिखाने वाले थे। वहाँ उन सबका महान एवं तुमुल कोलाहल रोंगटे खड़े कर देने वाला था। एक दूसरे के प्रति गर्जना करने वाले पाण्डवों तथा कौरवों के सिंहनाद और किल किलाहट के शब्द वहाँ सहस्रों बार प्रकट होते थे। भरतनन्दन! वहाँ नगाड़ों की भयानक गड़गड़ाहट, बाणों की सनसनाहट तथा परस्पर प्रहार करने वाले मनुष्यों की गर्जना के शब्द बड़े जोर से सुनाई दे रहे थे।

माननीय नरेश! तदनन्तर भीमसेन, धृष्टद्युम्न, नकुल, सहदेव तथा पाण्डुपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने सैनिकों को पुकार कर कहा-वीरों! आओ, शत्रुओं पर प्रहार करो। बड़े वेग से इन पर टूट पड़ो; क्योंकि वीर सात्यकि और अर्जुन शत्रुओं की सेना में घुस गये हैं। ‘वे दोनों जयद्रथ का वध करने के लिये जैसे सुख पूर्वक आगे जा सकें, उसी प्रकार शीघ्रता पूर्वक प्रयत्न करो।’ इस तरह उन्होंने सारी सेनाओं को आदेश दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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