महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 104 श्लोक 1-18

चतुरधिकशततम (104) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: चतुरधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन का कौरव महारथियों के साथ घोर युद्ध

संजय कहते हैं- राजन! आपके सैनिक इस प्रकार वृष्णि और अन्‍धवंश के श्रेष्‍ठ पुरुष तथा कुरुकुल रत्न अर्जुन को आगे देखकर उनका वध करने की इच्‍छा से उतावले हो उठे। इसी प्रकार अर्जुन भी शत्रुओं के वध की अभिलाषा से शीघ्रता करने लगे। वे कौरव सैनिक व्‍याघ्रचर्म से आच्‍छादित सुवर्णजटित और गम्‍भीर घोष करने वाले प्रज्‍वलित अग्नि के समान तेजस्‍वी विशाल रथों द्वारा सम्‍पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। पृथ्‍वीपते! वे सोने के पंखवाले दुर्लभ्‍य बाणों और क्रोध में भरे हुए घोड़ों के समान अनुपम टंकार ध्‍वनि करने वाले धनुषों के द्वारा भी समस्‍त दिशाओं में दीप्ति बिखेर रहे थे। भूरिश्रवा, शल, कर्ण, वृषसेन, जयद्रथ, कृपाचार्य, मद्रराज शल्य तथा रथियों में श्रेष्‍ठ अश्वत्‍थामा- ये आठ महारथी व्‍याघ्रचर्म द्वारा आच्‍छादित तथा सुवर्णमय चन्‍द्रचिहों से सुशोभित कर रहे थे। रोस में भरे हुए उन कवचधारी वीरों ने मेघ के समान गम्‍भीर गर्जना करने वाले रथों और पैने वाणों द्वारा अर्जुन की दसों दिशाओं को आच्‍छादित कर दिया कुलूत देश के विचित्र एवं दिशाओं को प्रकाशित करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। राजन! नाना देशों में उत्‍पन्‍न महान वेगशाली आजानेय[1], पर्वतीय (पहाड़ी)[2], नदीज (दरियाई)[3] तथा सिंधु देशीय उत्‍तम घोड़ों द्वारा आप के पुत्र की रक्षा के लिये उत्‍सुक हुए श्रेष्‍ठ कौरव योद्धा सब ओर से शीघ्र ही अर्जुन के रथ पर टूट पड़े।

नरेश्वर! उन पुरुषप्रवर योद्धाओं ने पृथ्‍वी और आकाश को शब्‍दों से व्‍याप्‍त करते हुए बड़े-बड़े शंख लेकर बजाये। इसी प्रकार सम्‍पूर्ण देवताओं में श्रेष्‍ठ श्रीकृष्‍ण और अर्जुन भूतल के समस्‍त शंखों में उत्‍तम अपने दिव्‍य शंख बजाने लगे। कुन्‍तीकुमार अर्जुन ने देवदत्‍त नामक शंख और श्रीकृष्‍ण ने पांचजन्‍य। धनंजय के बजाये हुए देवदत्त का शब्‍द पृथ्‍वी, आकाश तथा सम्‍पूर्ण दिशाओं में व्‍याप्‍त हो गया। इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्‍ण के बजाये हुए पाञ्चजन्‍य ने भी सम्‍पूर्ण शब्‍दों को दबाकर अपनी ध्‍वनि से पृथ्‍वी और आकाश को भर दिया। राजेन्‍द्र! इस प्रकार जब वहाँ भयंकर शब्‍द व्‍याप्‍त हो गया, जो कायरों को डराने और शूरवीरों के हर्ष को बढ़ाने वाला था, जब मेरी, झांझ, ढोल और मृदंग आदि अनेक प्रकार के बाजे बजने और बजाये जाने लगे, उस समय दुर्योधन का हित चाहने वाले विख्‍यात महारथी उस शब्‍द को न सह सकने के कारण कुपित हो उठे। वे नाना देशों में उत्‍पन्‍न वीर, महारथी, महाधनुर्धर महीपाल, जो अपनी सेना का संरक्षण कर रहे थे, अमर्ष में भरकर बड़े-बड़े शंख बजाने लगे; वे श्रीकृष्‍ण और अर्जुन के प्रत्‍येक कार्य का बदला चुकाने को उद्यत थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आजानेय का लक्षण इस प्रकार है- गुणगन्‍धा: काये ये शुलक्ष्‍णा: कान्तितो जितक्रोध:। सारयूता जितेन्द्रिया: क्षुतृडाहितं चापि नो दु:खम्। जानन्‍त्‍याजानेया निर्दिष्‍टा वाजिनो धीरैं:। अर्थात जिनके शरीर से गुड़की-सी गन्‍ध आती हो, जो कान्ति से अत्‍यन्‍त चिकने और चमकीले जान पड़ते हों, क्रोध को जीत चुके हों, बलवान और जितेन्द्रिय हो तथा भूख प्‍यास के कष्‍ट का अनुभव न करते हों, उन घोड़ों को धीर पुरुषों ने ‘आजनेय’ कहा है
  2. पर्वतीय घोड़ों का लक्षण यों होना चाहिये-वाहास्‍तु पर्वतीया बलान्विता: स्निग्‍धकेशाश्च वृत्तखुरा दृढपादा महाजवा-स्‍तेऽतिविख्‍याता:। अर्थात अत्‍यन्त विख्‍यात ‘पर्वतीय’ घोड़े बलवान होते हैं, उनके बाल चिकने, टाप गोल, पैर सुदृढ़ और वेग महान होते हैं।
  3. नदीज या दरियाई घोड़ों का लक्षण इस प्रकार है अश्वा: सकर्णिकारा: कचन नदीतीरजा: समुदिष्‍टा: पूर्वार्धेषूदग्रा: पश्चार्धे चानता: किंचित्। कहीं नदी के तट पर उत्‍पन्‍न हुए कनेर युक्‍त अश्‍व ‘नदीज’ कहलाते हैं। वे आगे के आधे शरीर से उंचे और पिछले आधे शरीर से कुछ नीचे होते हैं।

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