एकोनसप्ततितम (69) अध्याय: कर्ण पर्व
महाभारत: कर्ण पर्व: एकोनसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
पार्थ! तुम क्यों इतने उतावले होकर विशाल खंड हाथ में ले रहे हो। अद्भुत पराक्रमी वीर मैं तुमसे पूछता हूं, बताओ, इस समय तुम्हें यह क्या करने की इच्छा हुई है, जिससे कुपित होकर तलवार उठा रहे हो'। भगवान श्रीकृष्ण के इस प्रकार पूछने पर अर्जुन ने क्रोध में भरकर फुफकारते हुए सर्प के समान युधिष्ठिर की ओर देखकर श्रीकृष्ण से कहा- 'जो मुझसे यह कह दे कि तुम अपना गाण्डीव धनुष दूसरे को दे दो, उसका मैं सिर काट लूंगा। मैंने मन ही मन यह प्रतिज्ञा कर रखी है। अनन्त पराक्रमी गोविन्द! आप के सामने ही इन महाराज ने मुझसे वह बात कही है, अत: मैं इन्हें क्षमा नहीं कर सकता; इन धर्मभीरु नरेश का वध करुंगा। यदुनन्दन! इन नरश्रेष्ठ का वध करके मैं अपनी प्रतिज्ञा का पालन करुंगा; इसीलिये मैंने यह खंड हाथ में लिया है। जनार्दन! मैं युधिष्ठिर का वध करके उस सच्ची प्रतिज्ञा के भार से उऋण हो शोक और चिन्ता से मुक्त हो जाऊंगा। तात! आप इस अवसर पर क्या करना उचित समझते हैं आप ही इस जगत के भूत और भविष्य को जानते हैं, अत: आप मुझे जैसी आज्ञा देंगे, वैसा ही करुंगा’। संजय कहते हैं- राजन! यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से ‘धिक्कार है। धिक्कार है। ऐसा कहकर पुन: इस प्रकार बोले। श्रीकृष्ण ने कहा- 'पार्थ! इस समय मैं समझता हूँ कि तुमने वृद्ध पुरुषों की सेवा नहीं की है। पुरुषसिंह! इसीलिये तुम्हें बिना अवसर के ही क्रोध आ गया है। पाण्डुपुत्र धनंजय! जो धर्म के विभाग को जानने वाला है, वह कभी ऐसा नहीं कर सकता, जैसा कि यहाँ आज तुम करना चाहते हो। वास्तव में तुम धर्मभीरु होने के साथ ही बुद्धिहीन भी हो। पार्थ! जो करने योग्य होने पर भी असाध्य हों तथा जो साध्य होने पर भी निषिद्ध हों ऐसे कर्मों से जो सम्बन्ध जोड़ता है, वह पुरुषों में अधम माना गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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