महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 41 श्लोक 1-19

एकचत्वारिंश (41) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: एकचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


राजा शल्य का कर्ण को एक हंस और कौए का उपाख्यान सुनाकर उसे श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करते हुए उनकी शरण में जाने की सलाह देना


संजय कहते हैं- माननीय नरेश! युद्ध का अभिनन्दन करने वाले अधिरथपुत्र कर्ण की पूर्वोक्त बात सुनकर फिर शल्य ने उससे यह दृष्टान्तयुक्त बात कही- सुतपुत्र! मैं युद्ध में पीठ न दिखाने वाले यज्ञपरायण, मूर्धाभिषिक्त नरेशों के कुल में उत्पन्न हुआ हूँ और स्वयं भी धर्म में तत्‍पर रहता हूँ। किंतु वृषभ स्वरूप कर्ण! जैसे कोई मदिरा से मतवाला हो गया हो, उसी प्रकार तुम भी उन्मत्त दिखाई दे रहे हो; अतः मैं हितैषी सुहृद होने के नाते तुम-जैसे प्रमत्त की आज चिकित्सा करूँगा। ओ नीच कुलांकार कर्ण! मेरे द्वारा बताये जाने वाले कौए के इस दृष्टान्त को सुनो और सुनकर जैसी इच्छा हो वैसा करो। महाबाहु कर्ण! मुझे अपना कोई ऐसा अपराध नहीं याद आता है, जिसके कारण तुम मुझ निरपराध को भी मार डालने की इच्छा रखते हो। मैं राजा दुर्योधन का हितैषी हूँ और विशेषतः रथ पर सारथि बनकर बैठा हूँ; इसलिये तुम्हारे हिताहित को जानते हुए मेरा आवश्यक कर्त्तव्य है कि तुम्हें वह सब बता दूँ। सम और विषम अवस्था, रथी की प्रबलता और निर्बलता, रथी के साथ ही घोड़ों के सतत परिश्रत और कष्ट, अस्त्र हैं या नहीं, इसकी जानकारी, जय और पराजय की सूचना देने वाली पशु-पक्षियों की बोली, मार, अतिमार, शल्य-चिकित्सा, अस्त्रप्रयोग, युद्ध और शुभाशुभ निमित्त-इन सारी बातों का ज्ञान रखना मेरे लिये आवश्यक है; क्योंकि मैं इस रथ का एक कुटुम्बी हूँ। कर्ण इसीलिये मैं पुनः तुमसे इस दृष्टांत का वर्णन करता हूँ।

कहते हैं समुद्र के तट पर किसी धर्मप्रधान राजा के राज्य में एक प्रचुर धन-धान्य से सम्पन्न वैश्य रहता था। वह यज्ञ-यागादि करने वाला, दानपति, क्षमाशील, अपने वर्णनुकूल कर्म में तत्पर, पवित्र, बहुत-से पुत्र वाला, संतान प्रेमी और समस्त प्राणियों पर दया करने वाला था। उसके जो बहुत-से अल्पवयस्क यशस्वी पुत्र थे, उन सबकी जूठन खाने वाला एक कौआ भी वहाँ रहा करता था। वैश्य के बालक उस कौए को सदा मांस, भात, दही, दूध, खीर, मधु और घी आदि दिया करते थे। वैश्य के बालकों द्वारा जूठन खिला-खिलाकर पाला हुआ वह कौआ बड़े घमंड में भरकर अपने समान तथा अपने से श्रेष्ठ पक्षियों का भी अपमान करने लगा। एक दिन की बात है, उस समुद्र के तट पर गरुड़ के समान लंबी उड़ानें भरने वाले मानसरोवर निवासी राजहंस आये। उनके अंगों में चक्र के चिह्न थे और वे मन-ही-मन बहुत प्रसन्न थे। उस समय उन हंसों को देखकर कुमारों ने कौए से इस प्रकार कहा- 'विहंगम! तुम्हीं समस्त पक्षियों में श्रेष्ठ हो। देखो, ये आकाशचारी हंस आकाश में जाकर बड़ी दूर की उड़ानें भरते हैं। तुम भी इन्हीं के समान दूर तक उड़ने में समर्थ हो। तुमने अपनी इच्छा से ही अब तक वैसी उड़ान नहीं भरी। उन सारे अल्पबुद्धि बालकों द्वारा ठगा गया वह पक्षी मूर्खता और अभिमान से उनकी बात को सत्य मानने लगा। फिर वह जूठन पर घमंड करने वाला कौआ इन हंसों में सबसे श्रेष्ठ कौन है? यह जानने की इच्छा से उड़कर उनके पास गया और दूर तक उड़ने वाले उन बहुसंख्यक हंसों में से जिस पक्षी को उसने श्रेष्ठ समझा, उसी को उस दुर्बुद्धि ने ललकारते हुए कहा- चलो, हम दोनों उड़ें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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