महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-15

द्वितीय (2) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद



धृतराष्‍ट और संजय का संवाद

वैशम्‍पायन जी ने कहा- महाराज! [[[कर्ण]] के मारे जाने पर गवल्‍गणपुत्र संजय अत्‍यन्‍त दुखी हो वायु के समान वेगशाली घोड़ों द्वारा उसी रात में हस्तिनापुर जा पहुँचे। उस समय उनका चित अत्‍यन्‍त उद्विग्न हो रहा था। हस्तिनापुर में पहुँचकर वे धृतराष्ट्र के उस महल में गये, जहाँ रहने वाले बन्‍धु-बान्‍धव प्रायः नष्‍ट हो चुके थे। मोहवश जिनके बल और उत्‍साह नष्‍ट हो गये थे, उन राजा धृतराष्ट्र का दर्शन करके संजय ने उनके चरणों में मस्‍तक झुकाकर हाथ जोड़ प्रणाम किया। राजा धृतराष्ट्र का यथायोग्‍य सम्‍मान करके संजय ने ‘हाय! बड़े कष्‍ट की बात है’ ऐसा कहकर फिर इस प्रकार वार्तालाप आरम्‍भ किया -‘पृथ्‍वीनाथ! मैं संजय हूँ। आप सुख से तो हैं न? अपने ही अपराधों से विपति में पढ़कर आज आप मोहित तो नहीं हो रहे हैं? विदुर, द्रोणाचार्य, भीष्‍म और श्रीकृष्‍ण के कहे हुए हितकारक वचन आने स्‍वीकार नहीं किये थे। अब उन वचनों को बारंबार याद करके क्‍या आपको व्‍यथा नहीं होती?
सभा में परशुराम, नारद और महर्षि कण्व आदि की कही हुई बातें आपने नहीं मानी थीं। अब उन्‍हें स्‍मरण करके क्‍या आपके मन में कष्‍ट नहीं हो रहा है? आपके हित में लगे हुए भीष्‍म, द्रोण आदि जो सुहृद युद्ध में शत्रुओं के हाथ से मारे गये हैं, उन्‍हें याद करके क्‍या आप व्‍यथा का अनुभव नहीं करते हैं? हाथ जोड़कर ऐसी बातें कहने वाले सूतपुत्र संजय से दुःखातुर राजा धृतराष्ट्र ने लंबी साँस खींचकर इस प्रकार कहा-

धृतराष्ट्र बोले– संजय! दिव्यास्त्रों के ज्ञाता शूरवीर गजानन्‍दन भीष्म तथा महाधनुर्धर द्रोणाचार्य के मारे जाने से मेरे मन में बड़ी भारी व्‍यथा हो रही है। जो तेजस्‍वी भीष्‍म साक्षात वसु के अवतार थे और युद्ध में प्रतिदिन दस हजार कवचधारी रथियों का संहार करते थे। उन्‍हीं को यहाँ पाण्डुपुत्र अर्जुन से सुरक्षित द्रुपदकुमार शिखण्डी ने मार डाला है, यह सुनकर मेरे मन में बड़ी व्‍यथा हो रही है। जिन महात्‍मा को भृगुनन्‍दन परशुराम ने उत्तम अस्त्र प्रदान किया था, जिन्‍हें बाल्‍यावस्‍था में धनुर्वेद की शिक्षा देने के लिये साक्षात परशुराम जी ने अपना शिष्‍य बनाया था, जिनकी कृपा से कुन्ती के पुत्र राजकुमार पाण्‍डव महारथी हो गये तथा अन्‍यान्‍य नरेशों ने भी महारथी कहलाने की योग्‍यता प्राप्‍त की थीं, उन्‍हीं सत्‍य प्रतिज्ञ महाधनुर्धर द्रोणाचार्य को युद्धस्‍थल में धृष्टद्युम्न के हाथ से मार गया सुनकर मेरे मन में बड़ी पीड़ा हो रही है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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