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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
सुभद्रा और अर्जुन का विवाह
रैवतक पर्वत पर अन्धक, भोज और वृष्णि तीनों ही प्रकार के यादव प्रति वर्ष अपना जातीय मेला किया करते थे। इसलिए कुछ दिनों तक जंगल में मंगल होता था। बड़े-बड़े घरों के युवक सोने जवाहरात के मढ़े हुए रथों पर इधर-उधर डोला करते थे। हर बड़े परिवार की वहाँ पर अपनी-अपनी कोठियों थीं। अनेक धर्मशालाएं थीं। बड़ी भव्य हाट भी लगती थी। मेले, तमाशे, धार्मिक कथा-वार्ता, दान-धर्म, दान-व्रत सभी कुछ वहाँ पर होता था। इस बार उनके बीच में अर्जुन थे, इसलिए उत्सवों में कुछ विशेष उमंग आ गई थी। एक दिन मेले के बीच से गुजरते हुए एक जगह पर अर्जुन को एक ऐसी सुन्दरी युवती दिखलाई दी कि वे उसके रूप और सौन्दर्य को मन्त्र मुग्ध दृष्टि से देखने लगे। श्रीकृष्ण अपने मित्र के मन की बात समझ गए। उन्होंने हंसकर कहा- "व्याकुल मत हो, मित्र। इस युवती से तुम्हारे विवाह की बात चलाने में मैं तुम्हारी सहायता करूंगा। यह मेरी सौतेली बहन सुभद्रा है और मुझे विश्वास है कि अगर तुम मेरे पिता जी से प्रस्ताव करोगे तो वे बड़ी खुशी से तुम दोनों का विवाह करने की बात पर सहमत हो जायेंगे।" लेकिन यह कहने के साथ ही साथ श्रीकृष्ण ने एक नई बात भी कही। उन्होंने कहा- "तुम मेरी एक सलाह मानोगे, अर्जुन!" "मेरी सलाह यह है कि तुम्हारे जैसे योद्धा को किसी से अपने लिए कन्या मांगनी नहीं चाहिए। पसंद आई है तो उसे ले जाओ, क्षत्रिय का धर्म है। इस बहाने से मैं अपने यादवों को थोड़ा मानसिक झटका भी देना चाहता हूँ। इनके पास पैसा बहुत अधिक बढ़ गया है। चारों ओर से चैन-ही-चैन बरस रहा है। सो योद्धा जैसी चुस्ती की यादवों के गणराज्य में इस समय बहुत फैली हुई है। तुम अगर सुभद्रा का हरण करोगे तो उनके अन्दर भी एक बार क्रोध का उबाल आयेगा। यादवों के कल्याण के लिए मैं वह जातीय क्रोध इस समय जगाना भी चाहता हूँ। तुम्हारे बहाने से मेरी नीति अधिक सफल होगी।" अर्जुन बोले- "भाई, यह बड़ी नीति का मामला है। इसमें मेरा स्वयं कोई निर्णय लेना उचित नहीं। तुम किसी चतुर संदेशिया के द्वारा हमारे भाई धर्मराज युधिष्ठिर को सारा हाल कहला भेजो और उनसे मेरे लिए आज्ञा मंगा लो। तभी मैं इस कार्य में हाथ डालूंगा। यह मामला मेरे ननिहाल के नातेदारों का है। मैं बड़े भाई की आज्ञा के बिना कुछ भी नहीं करूंगा।" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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