महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
राजधानी का चुनाव
पाण्डव बच गये हैं तो अपना राज-पाट हमसे मागेंगे। भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और महात्मा विदुर जैसे लोगों ने राजा धृतराष्ट्र को यही सलाह दी कि अब ससम्मान पाण्डवों को हस्तिनापुर बुलाकर उन्हें आधा राज-पाट सौंप दो। इसी में सबकी भलाई है। इन सबकी सलाह से धृतराष्ट्र को मजबूर होकर अपने भतीजों को हस्तिनापुर बुलाना पड़ा। श्रीकृष्ण और अपने श्वसुर राजा द्रुपद की सलाह से भाइयों ने हस्तिनापुर आना स्वीकार किया। राजा धृतराष्ट्र ने उन्हें आधा राज्य देकर कहा कि खाण्डवप्रस्थ में अपनी राजधानी बनाकर तुम लोग रहो। खाण्डवप्रस्थ एक बड़ा ही मामूली कस्बा था और उसके आस-पास एक बहुत बड़ा जंगल था। उसमें नाग जाति के कुछ बड़े ही पिछड़े लोगों की बस्ती थी। वे लोग जितने पिछड़े थे उतने ही कठिन लड़वइये भी थे। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने मिलकर यह तय किया कि जंगल चारों और से सेना द्वारा घेर कर फिर उसमें आग लगा दी जाय। इस तरह छिपे हुए शत्रुओं और भयानक पशुओं को नष्ट करके पाण्डवों ने उस भूमि पर अपनी राजधानी बनवाना आरम्भ किया। सबसे पहले महर्षि वेदव्यास जी विद्वान और पवित्र ब्राह्मणों की टोली के साथ वहाँ गये और उन्होंने शास्त्र की विधि से राजभवन की भूमि नाम कर शांति पाठ किया। फिर उसके बाद राजधानी बनने का कार्य बड़ी तेजी से आरम्भ हो गया। दूर से सफेद बादलों जैसी दिखाई पड़ने वाली नगर की पक्की चहारदीवारी बनी। उसके चारों ओर खूब गहरी और चौड़ी खाई खोदी गई। नगर के ऊंचे-ऊंचे फाटक और फाटकों के ऊपर कलात्मक गोपुर, ऊंचे-ऊंचे महल, हाट-बाजार सब कुछ बहुत ही सुन्दर और बहुत तेजी से बन रहे थे। सम्पन्न नागरिकों ने अपनी-अपनी हवेलियां बनवानी आरम्भ कर दीं। नित नये-नये दुकानदार और व्यापारी दूर-दूर से आकर राजधानी में अपने लिए भूमि मांगने लगे। तरह-तरह के धन्धों वाले कुशल कारीगर, मनोरंजन करने वाले नट-बाजीगर, नर्तक-नर्तकियां, बहुरूपिये आदि वहाँ आकर अपने-अपने डेरे डालने लगे। देखते-ही-देखते राजधानी का नगर तैयार हो गया। चारों ओर जगर-मगर हो रही थी। जगह-जगह बाग-बगीचे बने थे, फुहारे छूट रहे थे, कहीं चित्रशाला, कहीं कांच का महल, कहीं नकली पहाड़ और झरनों की छटा। राजधानी को देखकर हर एक के मुंह से बस यही एक बात निकलती थी कि वाह! पारस्य देश की सुप्रसिद्ध शुषा नगरी और महिमा मण्डित इन्द्रपुरी भी राजा युधिष्ठिर की राजधानी के आगे लजाती है। लोग-बाग कहते हैं कि हस्तिनापुर भले ही पुराना बसा हुआ नगर हो, भले ही बहुत भव्य हो, पर राजा युधिष्ठिर की राजधानी के आगे वह अब फीका लगता है। जब नगर अच्छी तरह से बन गया, किले पर शतग्नि नाम की एक प्रकार की तोपें आदि चढ़ा दी गईं, चौकी-पहरे का प्रबन्ध हो गया तो पाण्डव लोग बाजे-गाजे के साथ वहाँ रहने के लिए आये। महाराज युधिष्ठिर ने नगर की सुन्दरता देखकर अपनी राजधानी का नाम इन्द्रप्रस्थ रखा। कुछ ही दिनों में पाण्डवों के राज-पाट और राजधानी की उन्नति इस प्रकार से होने लगी कि चारों ओर पाण्डवों की प्रशंसा सुनकर कौरवों के जी जल उठे। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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