महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
युद्ध का आरम्भ
सवेरा हुआ दोनों पक्षों में देवताओं की पूजा हुई और दुर्गा भवानी को विजय देने के लिए मनाया गया। आमने-सामने मैदान में सेनायें डट गयीं। हजारों शंख, दमामे, तुरहियां बजने लगीं। मारू बाजे सुनकर हाथी चिंग्घाड़ उठे और दोनों पक्षों के सिपाहियों ने हज़ारों कंठों से जय-जयकार करके आकाश गुंजा दिया। हर सैनिक टुकड़ी के सेनानायक अपने-अपने शब्दों से सैनिकों को जोशीला बढ़ावा दे रहे थे। सेनापति भीष्म और सेनापति धृष्टद्युम्न अपनी-अपनी सेनाओं का निरीक्षण कर रहे थे। इसी समय अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा- "हे सखा, जब तक यह प्रारंभिक तैयारियां चल रही हैं, तब तक आओ हम लोग दोनों सेनाओं के बीच में खड़े होकर दोनों ओर की तैयारियों का निरीक्षण करें। तुम मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले चलो।" सारथि श्रीकृष्ण ने वैसा ही किया। रथ पर खड़े होकर अर्जुन अपने चारों ओर का दृश्य देखने लगे, उनके चारों ओर आदमियों, हाथियों, घोड़ों और रथों का जंगल खड़ा हुआ था। जय-जयकारों और ढ़ोल दमामों की आवाजों के सामने, कान पड़ी बात तक न सुनाई देती थी। अर्जुन ने देखा कि दूर पर सफेद दाढ़ी लहराते हुए भीष्म खड़े हैं, और एक ओर द्रोणाचार्य जी रथ पर चले आ रहे हैं, न जाने कितने प्रिय और परिचित चेहरे शत्रुओं के पक्ष में दिखाई दे रहे हैं। लड़ने वालों में बाबा, चाचा, भाई भतीजे सभी थे। यह देखकर अर्जुन का मन उदास हो गया वे रथ पर बैठ गये और दुखी होकर बोले- "हे कृष्ण! मैं अपने प्यारों को भला अपने हाथ से कैसे मार सकूंगा। नहीं-नहीं यह पाप मुझसे कदापि न होगा, आदमी राज-पाट सुख-वैभव आखिर किसके लिए चाहता है, अपने प्रिय जनों के लिए ही न? फिर उन्हें मारकर अपना राज-पाट पा लेने पर मुझे सुख कैसे मिल सकेगा। हे कृष्ण! मेरे मन में यह सभी बातें कई दिनों से चल रही थीं किन्तु आज मेरा मन पोढ़ा हो गया है। मैंने यह निश्चय कर लिया है कि मैं नहीं लडूंगा।" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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