महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
आज से कई हज़ार वर्ष पहले हस्तिनापुर में कुरुवंशी राजा राज करते थे। इस हस्तिनापुर में दुष्यन्त के बेटे प्रतापी महाराज भरत की राजधानी थी। लेकिन उन दिनों उस जगह का नाम हस्तिनापुर नहीं था, तब वह या तो आसंदीब्रत कहलाती होगी या ब्रह्मस्थल। इस नगरी का हस्तिनापुर नाम तो महाराज भरत की छठी पीढ़ी में होने वाले प्रतापी महाराज हस्तिन ने रखा था। राजा हस्तिन की ननिहाल अवध के इक्ष्वाकु वंश वालों के यहाँ थी। इसलिए राजा हस्तिन को अपने दोनों प्रतापी वंशों का वैभव मिला था। इन्हीं महाराज हस्तिन की आगे आने वाली पीढ़ियों में एक ऐसी घटना घटी जो कि हज़ारों वर्ष से अब तक भुलाई न जा सकी और उस महान घटना का नाम है महाभारत युद्ध! हस्तिनापुर में राजा प्रतीप का दरबार लगा हुआ है। राजा का दरबार पत्थर का अवश्य बना हुआ है पर बहुत ऊंचा और भव्य नहीं है, वह कलात्मक नहीं है। हां, उसके छत में सोना मढ़ा हुआ है और खम्भे चांदी से चमचमा रहे हैं। महाराज जिस सिंहासन पर विराजमान हैं वह ठोस सोने का है। सारे दरबारी, बड़े-बड़े सेठ-साहूकार और बड़े-बड़े सेनापति सिपहसालार उस दरबार में बैठे हैं, जिधर देखो उधर केवल धोती और दुपट्टे ही प्रयोग में लाते हैं, पर सोने और मणि माणिक्यों से खूब लदे रहते हैं। दरबार में सिंहासन के नीचे ही तीन चौकियों पर राजा प्रतीप के तीन राजकुमार बैठे हैं। बड़े का नाम देवापि है, मंझले का बाल्हीक और तीसरे का शांतनु। शांतनु अपने दोनों बड़े भाइयों से छोटा है चूंकि वह राजा प्रतीप के बुढ़ापे की सन्तान है और उनके जन्म से उनके मन को बड़ी शान्ति मिली थी, इसीलिए उनका शांतनु नाम रखा गया है। मन्त्री ने खड़े होकर कहा - "महाराज, अपनी वृद्धावस्था पर विचार करके अब एक युवराज का चुनाव करना चाहते हैं। राजकुमारों में देवापि सबसे बड़े हैं।" मंत्री अपनी बात पूरी भी न कर पाया था कि सभा में बैठा एक साधारण व्यक्ति सहसा बोल उठा - "देवापि को हम अपना युवराज नहीं बनाएंगे। वह विद्वान हैं, सब तरह से भले हैं परन्तु दुर्भाग्य से वह कोढ़ी हैं। हमें युवराज के चुनाव के मामले में शुभ-अशुभ का विचार रखना ही होगा।" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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