महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 98 श्लोक 1-17

अष्टनवतितम (98) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टनवतितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

मातलि का अपनी पुत्री के लिए वर खोजने के निमित्त नारद जी के साथ वरुण लोक में भ्रमण करते हुए अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना

  • कण्व मुनि कहते हैं- राजन! उसी समय महर्षि नारद वरुण देवता से मिलने के लिए उधर जा रहे थे। नागलोक के मार्ग में जाते हुए मातलि की नारद जी के साथ अकस्मात भेंट हो गयी। (1)
  • नारद जी ने उनसे पूछा देवसारथे! तुम कहाँ जाने को उदयत्त हुए हो? तुम्हारी यह यात्रा किसी निजी कार्य से अथवा देवेंद्र के आदेश से हुई है? (2)
  • मार्ग में जाते हुए नारद जी के इस प्रकार पूछने पर मातलि ने उनसे अपना सारा कार्य यथावत रूप से बताया। (3)
  • तब उन मुनि ने मातलि से कहा- 'हम दोनों साथ-साथ चलें। मैं भी जल के स्वामी वरुणदेव का दर्शन करने की इच्छा से देवलोक से आ रहा हूँ। (4)
  • 'मैं तुम्हें पृथ्वी के नीचे के लोकों को दिखाते हुए वहाँ की सब वस्तुओं का परिचय दूँगा। मातले! वहाँ हम दोनों किसी योग्य वर को देखकर पसंद करेंगे'। (5)
  • तदनंतर मातलि और नारद दोनों महात्मा पृथ्वी के भीतर प्रवेश करके जल के स्वामी लोकपाल वरुण के समीप गये। (6)
  • नारद जी को वहाँ देवर्षियों के योग्य और मातलि को देवराज इन्द्र के समान आदर-सत्कार प्राप्त हुआ। (7)
  • तत्पश्चात उन दोनों ने प्रसन्नचित्त होकर वरुण देवता से अपना कार्य निवेदन किया और उनकी आज्ञा लेकर वे नागलोक में विचरने लगे। (8)
  • नारद जी पाताल लोक में निवास करने वाले सभी प्राणियों को जानते थे। अत: उन्होंने इंद्र सारथी मातलि को वहाँ की सब वस्तुओं के विषय में विस्तारपूर्वक बताना आरंभ किया। (9)
  • नारद जी ने कहा- सूत! तुमने पुत्रों और पौत्रों से घिरे हुए वरुण देवता का दर्शन किया है। देखो, यह जलेश्वर वरुण का समृद्धिशाली निवास स्थान है। इसका नाम है, सर्वतोभद्र। (10)
  • ये गोपति वरुण के परम बुद्धिमान पुत्र हैं; जो अपने उत्तम स्वभाव, सदाचार और पवित्रता के कारण अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। (11)
  • वरुणदेव के इन प्रिय पुत्र का नाम पुष्कर है। इनके नेत्र विकसित कमल के समान सुशोभित हैं। ये रूपवान तथा दर्शनीय हैं। इसीलिए सोम की पुत्री ने इनका पतिरूप से वरण किया है। (12)
  • सोम की जो दूसरी पुत्री है, वे ज्योत्स्नाकाली के नाम से प्रसिद्ध है तथा रूप में साक्षात लक्ष्मी के समान जान पड़ती है। उन्होंने अदितिदेवी के ज्येष्ठ पुत्र सूर्यदेव को अपना श्रेष्ठ पति बनाया एवं माना है। (13)
  • महेंद्रमित्र! देखो, यह वरूण देवता का भवन है, जो सब ओर से सुवर्ण का ही बना हुआ है। यहाँ पहुँचकर ही देवगण वास्तव में देवत्व लाभ करते हैं। (14)
  • मातले! जिनके राज्य छिन लिए गये हैं, उन दैत्यों के ये देदीप्यमान सम्पूर्ण आयुध दिखाई देते हैं। (15)
  • देवसारथे! ये सारे अस्त्र-शस्त्र अक्षय हैं और प्रहार करने पर शत्रु को आहत करके पुन: अपने स्वामी के हाथ में लौट आते हैं। पहले दैत्य लोग अपनी शक्ति के अनुसार इनका प्रयोग करते थे, परंतु अब देवताओं ने इन्हें जीतकर अपने अधिकार में कर लिया है। (16)
  • मातले! इन स्थानों में राक्षस और दैत्य जाति के लोग रहते हैं। यहाँ दैत्यों के बनाये हुए बहुत-से दिव्यास्त्र भी रहे हैं। (17)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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