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महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
संजय का कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना
- धृतराष्ट्र ने कहा- संजय! मैं इन राजाओं के बीच तुमसे यह पूछ रहा हूँ कि अनेक युद्धों के संचालक तथा दुरात्माओं के जीवन का नाश करने वाले उदार हृदय महात्मा अर्जुन ने हमारे लिये कौन-सा संदेश भेजा है। (1)
- संजय बोला- राजन! युधिष्ठिर की आज्ञा से युद्ध के लिये उद्यत हुए महात्मा अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण के सुनते-सुनते जो बात कही है, उसे दुर्योधन सुनें। (2)
- अपने बाहुबल को अच्छी तरह जानने वाले धीर-वीर किरीटधारी अर्जुन ने भावी युद्ध के लिये उद्यत हो भगवान श्रीकृष्ण के समीप मुझसे इस प्रकार कहा है-‘संजय! जो काल के गाल में जाने वाला,मन्दबुद्धि एवं महामूर्ख सदा मेरे साथ युद्ध करने के लिये डींग हांकता रहता है, उस कटुभाषी दुरात्मा सूतपुत्र कर्ण को सुनाकर तथा और भी जो-जो राजा लोग पाण्डवों के साथ युद्ध करने के लिये बुलाये गये हैं, उन सबको सुनाते हुए तुम कौरवों की मण्डली में मेरे द्वारा कही हुई सारी बातें मन्त्रियों सहित धृतराष्ट्र पुत्र राजा दुर्योधन से इस प्रकार कहना, जिससे वह अच्छी तरह सुन ले'। (3-5)
- जैसे सब देवता वज्रधारी देवराज इन्द्र की बातें सुनना चाहते हैं, निश्चय ही उसी प्रकार समस्त सृंजय और पाण्डव अर्जुन की मुझसे कही हुई ओज भरी बातें सुन रहे थे। (6)
- उस समय गाण्डीवधारी अर्जुन युद्ध के लिये उत्सुक जान पड़ते थे। उनके कमल सदृश नेत्र लाल हो गये थे। उन्होंने इस प्रकार कहा-‘यदि दुर्योधन अजमीढकुल नंदन महाराज युधिष्ठिर का राज्य नहीं छोड़ता है तो निश्चय ही धृतराष्ट्र के पुत्रों का पूर्वजन्म में किया हुआ कोई ऐसा पापकर्म प्रकट हुआ है, जिसका फल उन्हें भोगना है। (7)
- ‘तभी तो उनका भीमसेन, अर्जुन,नकुल-सहदेव, भगवान श्रीकृष्ण, अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित सात्यकि, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी तथा इन्द्र के समान तेजस्वी उन महाराज युधिष्ठिर के साथ युद्ध होने वाला है, जो अनिष्टचिंतन करते ही पृथ्वी तथा स्वर्गलोक को भी भस्म कर सकते हैं। (8-9)
- ‘यदि दुर्योधन चाहता है कि इन सब वीरों के साथ कौरवों का युद्ध हो तो ठीक है, इससे पाण्डवों का सारा मनोरथ सिद्ध हो जायगा। तुम केवल पाण्डवों के लाभ के लिये संधि कराने या आधा राज्य दिलाने की चेष्टा न करना। उस दशा में यदि ठीक समझो तो उससे कह देना- ‘दुर्योधन! तुम युद्धभूमि में ही उतरो’। (10)
- ‘धर्मात्मा पाण्डुनंदन युधिष्ठिर ने वन में निर्वासित होकर जिस दु:ख शय्या पर शयन किया है, दुर्योधन अपने प्राणों-का त्याग करके उससे भी अधिक दु:खदायिनी और अनर्थ-कारिणी मृत्यु की अंतिम शय्या को ग्रहण करे। (11)
- ‘अन्यायपूर्ण बर्ताव करने वाले दुरात्मा दुर्योधन को उचित है कि वह लज्जा, ज्ञान, तपस्या, इन्द्रिय संयम, शौर्य, धर्म रक्षा आदि गुणों तथा धन के द्वारा कोरव-पाण्डवों पर अधिकार प्राप्त करे [1]। (12)
- ‘हमारे महाराज युधिष्ठिर नम्रता, सरलता, तप, इन्द्रिय-संयम, धर्म रक्षा और बल-इन सभी गुणों से सम्पन्न हैं। वे बहुत दिनों से अनेक प्रकार के क्लेश उठाते हुए भी सदा सत्य ही बोलते हैं तथा कौरवों के कपटपूर्ण व्यवहारों तथा वचनों को सहन करते रहते हैं। (13)
- ‘परंतु अपने मन को शुद्ध एवं संयत रखने वाले ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर जिस समय उत्तेजित हो अनेक वर्षों से दबे हुए अपने अत्यन्त भयंकर क्रोध को कौरवों पर छोड़ेंगे, उस समय जो भयानक युद्ध होगा, उसे देखकर दुर्योधन को पछताना पड़ेगा। (14)
- ‘जैसे ग्रीष्मऋतु में प्रज्वलित अग्नि सब ओर से धधक उठती है और घास-फूस एवं जंगलों को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार क्रोध से तमतमाये हुए युधिष्ठिर दुर्योधन की सेना को अपने दृष्टिपात मात्र से दग्ध कर देंगे। (15)
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