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महाभारत: उद्योग पर्व: एकोनचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 16-34 का हिन्दी अनुवाद
- वैसे नीच, क्रूर तथा अजितेन्द्रिय पुरुषों से हाने वाले संग पर अपनी बुद्धि से पूर्ण विचार करके विद्वान पुरुष उसे दूर से ही त्याग दे। (16)
- जो अपने कुटुम्बी, दरिद्र, दीन तथा रोगी पर अनुग्रह करता है, वह पुत्र और पशुओं से वृद्धि को प्राप्त होता है और अनंत कल्याण का अनुभव करता है। (17)
- राजेन्द्र! जो लोग अपने भले की इच्छा करते हैं, उन्हें अपने जाति-भाइयों को उन्नतिशील बनाना चाहिये; इसलिये आप भली-भाँति अपने कुल की वृद्धि करें। (18)
- राजन! जो अपने कुटम्बीजनों का सत्कार करता है, वह कल्याण का भागी होता है। (19)
- भरतश्रेष्ठ! अपने कुटम्ब के लोग गुणहीन हों, तो भी उनकी रक्षा करनी चाहिये। फिर जो आपके कृपाभिलाषी एवं गुणवान हैं, उनकी तो बात ही क्या है। (20)
- राजन! आप समर्थ हैं, वीर पाण्डवों पर कृपा कीजिये और उनकी जीविका के लिये कुछ गांव दे दीजिये। (21)
- नरेश्र्वर! ऐसा करने से आपको इस संसार में यश प्राप्त होगा। तात! आप वृद्ध हैं, इसलिये आपको अपने पुत्रों पर शासन करना चाहिये। (22)
- भरतश्रेष्ठ! मुझे भी आपकी हित की बात कहनी चाहिये। आप मुझे अपना हितैषी समझें। तात! शुभ चाहने वाले को अपने जाति भाइयों के साथ झगड़ा नहीं करना चाहिये; बल्कि उनके साथ मिलकर सुख का उपभोग करना चाहिये। (23)
- जाति-भाइयों के साथ परस्पर भोजन, बातचीत एवं प्रेम करना ही कर्तव्य है; उनके साथ कभी विरोध नहीं करना चाहिये। (24)
- इस जगत में जाति-भाई ही तारते हैं और जाति-भाई ही डुबाते भी हैं। उनमें जो सदाचारी हैं, वे तो तारते हैं और दुराचारी डुबा देते हैं। (25)
- राजेन्द्र! आप पाण्डवों के प्रति सद्व्यवहार करें। मानद! उनसे सुरक्षित होकर आप शत्रुओं के लिये दुर्धर्ष हो जायं। (26)
- विषैले बाण हाथ में लिये हुए व्याघ के पास पहुँचकर जैसे मृग को कष्ट भोगना पड़ता है, उसी प्रकार जो जातीय बंधु अपने धनी बंधु के पास पहुँचकर दु:ख पाता है, उसके पाप का भागी वह धनी होता है। (27)
- नरश्रेष्ठ! आप पाण्डवों को अथवा अपने पुत्रों को मारे गये सुनकर पीछे संताप करेंगे; अत: इस बात का पहले ही विचार कर लीजिये। (28)
- इस जीवन का कोई ठिकाना नहीं है अतएव जिस कर्म के करने से [1] खटिया पर बैठकर पछताना पड़े, उसको पहले से ही नहीं करना चाहिये। (29)
- शुक्राचार्य के सिवा दूसरा कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो नीति का उल्लघंन नहीं करता; अत: जो बीत गया, सो बीत गया, शेष कर्तव्य का विचार[2] बुद्धिमान पुरुषों पर ही निर्भर है। (30)
- नरेश्र्वर! दुर्योधन ने पहले यदि पाण्डवों के प्रति यह अपराध किया है तो आप इस कुल में बड़े-बूढ़े हैं; आपके द्वारा उसका मार्जन हो जाना चाहिये। (31)
- नरश्रेष्ठ! यदि आप उनको राजपद पर स्थापित कर देंगे तो संसार में आपका कलंक धुल जायगा और आप बुद्धिमान पुरुषों के माननीय हो जायंगे। (32)
- जो धीर पुरुषों के वचनों के परिणाम पर विचार करके उन्हें कार्यरूप में परिणत करता है, वह चिरकाल तक यश का भागी बना रहता है। (33)
- अत्यन्त कुशल विद्वानों के द्वारा भी उपेदश किया हुआ ज्ञान व्यर्थ ही है, यदि उससे कर्तव्य ज्ञान न हुआ अथवा ज्ञान होने पर भी उसका अनुष्ठान न हुआ। (34)
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