महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 162 श्लोक 51-63

द्विषष्‍टयधिकशततम (162) अध्‍याय: उद्योग पर्व (उलूकदूतागमनपर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: द्विषष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 51-63 का हिन्दी अनुवाद
  • जुआरी श‍कुनि के पुत्र तात उलूक! तुम जाओ और वैर के मूर्तिमान स्‍वरूप उस कृतघ्‍न, दुबुर्द्धि एवं कुलांगार दुर्योधन से इस प्रकार कह दो- (51)
  • पापी दुर्योधन! तू पाण्‍डवों के साथ सदा कुटिल बर्ताव कराता आ रहा है। पापात्‍मन! जो किसी से भयभीत न होकर अपने वचनों का पालन करता है और अपने ही बाहुबल से पराक्रम प्रकट करके शत्रुओं को युद्ध के लिये बुलाता है, वही पुरुष क्षत्रिय है। (52)
  • कुलाधम! तू पापी है! देख, क्षत्रिय होकर और हम लोगों को युद्ध के लिये बुलाकर ऐसे लोगों को आगे करके रणभूमि में न आना, जो हमारे माननीय वृद्ध गुरुजन और स्‍नेहास्‍पद बालक हों। (53)
  • कुरुनन्‍दन! तू अपने तथा भरणीय सेवक वर्ग के बल ओर पराक्रम का आश्रय लेकर ही कुन्‍ती के पुत्रों का युद्ध के लिये आव्‍हान कर। सब प्रकार से क्षत्रियत्‍व का परिचय दे। (54)
  • जो स्‍वयं सामना करने में असमर्थ होने के कारण दूसरों के पराक्रम का भरोसा करके शत्रुओं को युद्ध के लिये ललकारता है, उसका यह कार्य उसकी नपुंसकता का ही सूचक है। (55)
  • तू तो दूसरों के ही बल से अपने आपको बहुत अधिक शक्तिशाली मानता है; परंतु ऐसा असमर्थ होकर तू हमारे सामने गर्जना कैसे कर रहा है। (56)
  • तत्‍पश्‍चात भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- उलूक! इसके बाद तू दुर्योधन से मेरी यह बात भी कह देना- दुर्मते! अब कल ही तू रणभूमि में आ जा और अपने पुरुषत्‍व का परिचय दे। (57)
  • मूढ़! तू जो यह समझता है कि कुन्‍ती के पुत्रों ने श्रीकृष्‍ण से सारथी बनने का अनुरोध किया है, अत: वे युद्ध नहीं करेंगे। सम्‍भवत: इसीलिये तू मुझसे डर नहीं रहा है। (58)
  • परंतु याद रख, मैं चाहूं, तो इन सम्‍पूर्ण नरेशों को अपनी क्रोधाग्नि से उसी प्रकार भस्‍म कर सकता हूं, जैसे आग घास-फूस को जला डालती है। किंतु युद्ध के अन्‍त तक मुझे ऐसा करने का अवसर न मिले; यही मेरी इच्‍छा है। (59)
  • राजा युधिष्ठिर के अनुरोध से मैं जितेन्द्रिय महात्‍मा अर्जुन के युद्ध करते समय उनके सा‍रथि का काम अवश्‍य करूंगा। (60)
  • अब तू यदि तीनों लोकों से ऊपर उड़ जाये अथवा धरती में समा जाय, तो भी, तू जहाँ-जहाँ जायेगा, वहाँ-वहाँ कल प्रात:काल अर्जुन का रथ पहुँचा हुआ देखेगा। (61)
  • इसके सिवा, तू जो भीमसेन की कही हुई बातों को व्‍यर्थ मानने लगा है, यह ठीक नहीं है। तू आज ही निश्चित रूप से समझ ले कि भीमसेन ने दु:शासन का रक्‍त पी लिया। (62)
  • तू पाण्‍डवों के विपरीत कटुभाषण करता जा रहा है, परंतु अर्जुन, राजा युधिष्ठिर, भीमसेन तथा नकुल-सहदेव तुझे कुछ भी नहीं समझते हैं। (63)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्‍तर्गत उलूकदूताभिगमनपर्वमे श्रीकृष्‍ण आदिके वचनविषयक एक सौ बासठवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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