|
महाभारत: उद्योग पर्व: सप्तत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
कुंती का पांडवों के लिए संदेश देना और श्रीकृष्ण का उनसे विदा लेकर उपप्लव्य नगर में जाना
- कुंती बोली- केशव! तुम अर्जुन से जाकर कहना, तुम्हारे जन्म के समय जब मैं नारियों से घिरी हुई आश्रम के सूतिकागार में बैठी थी, उसी समय आकाश में यह दिव्यरूपा मनोरम वाणी सुनाई दी- कुंती! तेरा यह पुत्र इन्द्र के समान पराक्रमी होगा। (1-2)
- यह भीमसेन के साथ रहकर युद्ध में आए हुए समस्त कौरवों को जीत लेगा और शत्रु-समुदाय को व्याकुल कर देगा। (3)
- तेरा यह पुत्र भगवान श्रीकृष्ण के साथ रहकर इस भूमंडल को जीत लेगा, इसका यश स्वर्गलोक तक फैल जाएगा और यह संग्राम में विपक्षी कौरवों को मारकर अपने पैतृक राज्य-भाग का पुनरुद्धार करेगा। यह शोभासंपन्न बालक अपने भाइयों के साथ तीन अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करेगा।' (4-5)
- अच्युत! सव्यसाची अर्जुन जैसा सत्यप्रतिज्ञ है तथा उसमें जितना बल एवं दुर्जेय शक्ति है, उसे तुम्हीं जानते हो। (6)
- दशार्हकुलनंदन श्रीकृष्ण! काशवाणी ने जैसा कहा है, वैसा ही हो, यही मेरी भी इच्छा है। वृष्णिनन्दन! यदि धर्म की सत्ता है तो वह सब उसी रूप में सत्य होगा। (7)
- श्रीकृष्ण! तुम स्वयं भी वह सब कुछ उसी रूप में पूर्ण करोगे। आकाशवाणी ने जैसा कहा है, उसमें मैं किसी दोष की उद्भावना नहीं करती हूँ। (8)
- मैं तो उस महान धर्म को नमस्कार करती हूँ, क्योंकि धर्म ही समस्त प्रजा को धारण करता है। तुम अर्जुन से तथा युद्ध के लिए सदा उद्यत रहने वाले भीमसेन से भी जाकर कहना। क्षत्राणी जिसके लिए पुत्र को जन्म देती है, उसका यह उपयुक्त अवसर आ गया है। श्रेष्ठ मनुष्य किसी से वैर ठन जाने पर उत्साहहीन नहीं होते। (9-10)
- शत्रुदमन श्रीकृष्ण! तुम्हें भीमसेन का विचार तो सदा से ज्ञात ही है, वह जब तक शत्रुओं का अंत नहीं कर लेगा, तब तक शांत नहीं होगा। (11)
- माधव! श्रीकृष्ण! तुम सब धर्मों को विशेष रूप से जानने वाली महात्मा पांडु की पुत्रवधू कल्याणमयी, यशस्विनी द्रौपदी से कहना। बेटी! तू परम सौभाग्यशाली यशस्वी कुल में उत्पन्न हुई है। तूने मेरे सभी पुत्रों के साथ जो धर्मानुसार यथोचित बर्ताव किया है, वह तेरे ही योग्य है।' (12-13)
- पुरुषोत्तम! तदनंतर क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहने वाले दोनों माद्रीकुमारों से भी मेरा यह संदेश कहना- वीरो! तुम प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने पराक्रम से प्राप्त हुए भोगों का ही उपभोग करो। क्षत्रिय धर्म से निर्वाह करने वाले मनुष्य के मन को पराक्रम द्वारा प्राप्त किए हुए पदार्थ ही सदा संतुष्ट रखते हैं। (14-15)
- पांडवो! सब प्रकार से धर्म की वृद्धि करने वाले तुम सब लोगों के देखते-देखते पाञ्चाल राजकुमारी द्रौपदी को जो कटुवचन सुनाये गए हैं, उन्हें कौन वीर क्षमा कर सकता है? (16)
- श्रीकृष्ण! मुझे राज्य छिन जाने का उतना दु:ख नहीं है। जूए में हारने और पुत्रों के वनवास होने का भी मेरे मन में उतना महान दु:ख नहीं है, परंतु भरी सभा में मेरी सुंदरी युवती पुत्रवधू द्रौपदी ने रोते हुए जो दुर्योधन के कटुवचन सुने थे, वही मेरे लिए महान दु:ख का कारण बन गया है। (17-18)
- क्षत्रिय धर्म में सदा तत्पर रहने वाली मेरी सर्वांगसुंदरी सती-साध्वी बहू कृष्णा उन दिनों राजस्वलावस्था में थी। वह सब प्रकार से सनाथ थी, तो भी उस दिन कौरव सभा में उसे कोई रक्षक नहीं मिला, वह अनाथ सी रोती हुई अपमान सह रही थी। (19)
|
|